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________________ ४८ पाण्डवपुराणम् तदा च सर्वतूर्याणामुदतिष्ठन्महास्वरः । कन्यासामान्यमुत्साहं दिकन्याः श्रावयन्निव ॥६२ साधु साधु कृतं सर्वे कन्ययाघोषयन्निति । साधवो वीक्ष्य योग्यत्वं साधुकारं वदन्त्यहो॥६३ तदा दुर्मर्षणः कश्चिदर्ककीर्त्यनुजीवकः । कोपादुद्दीपयन्भूपान्प्राह सर्वासहिष्णुकः ॥६४ अकम्पनो वृथा युष्मानाहूयासञ्जयजये । कन्यां विधित्सुर्यो दीर्घा पराभूति युगावधिम्।।६५ इत्युक्त्वा चक्रिणः पुत्रं सवीडं प्राप्य चाब्रवीत् । तत्वां स्वगेहमानीय कृतं दौष्टयमनेन च।।६६ त्वं हि चक्रिसुतः श्रीमाञ्जयोऽयं तव सेवकः। त्वां हित्वास्मै ददे कन्यानेन दौष्ट्यं महत्कृतम् ॥६७ इत्यसन्धुक्षयद्भतुवेचोवातैः क्रुधानलम् । मामधिक्षिप्य कन्येयं दत्तानेन दुरात्मना ।।६८. । वीरपस्तदा सोढश्चक्रिणो भयतो मया । मालां सहे कथं चाद्य सर्वसौभाग्यहारिणीम् ॥६९ इति निर्मुक्तमर्यादो हेयादेयविमूढधीः । सोऽविचार्याचलयोध्दु कल्पान्तजलदोपमः ॥७० ॥ ६१ ॥ उस समय सुलोचना कन्याका असामान्य उत्साह दिक्कन्याओंको मानो सुनानेवाला, सर्व वाद्योंका ध्वनि युगपत् उत्पन्न हुआ ॥ ६२ ॥ इस कन्याने बहुत अच्छा कार्य किया ऐसा सर्व लोग कहने लगे । तथा कन्याकी योग्यता अर्थात् योग्य पुरुषको ढूंढ कर उसे वरनेका चातुर्य देखकर कन्याकी प्रशंसा करने लगे। यह योग्य ही है कि सज्जन कार्यको देखकर उसकी प्रशंसा करते ही हैं। परन्तु अर्ककीर्ति राजपुत्रका दुर्मर्षण नामक एक किङ्कर था । उसको जयकुमारको वरनेका कार्य सहन नहीं हुआ । इस लिये कोपसे इतर राजाओंको भडकानेके लिये वह इस प्रकार कहने लगा, “हे राजगण, कल्पान्तकालतक चलनेवाला आपका दीर्घ अपमान करनेकी इच्छासे अकम्पन राजाने आपको बुलाया और अपनी कन्यासे जयकुमारके गलेमें वरमाला डलवायी"। इस प्रकारकहकर लज्जित हुए चक्रवर्तिपुत्र अर्ककीर्तिके पास जाकर उसको कहने लगा । " हे प्रभो, आप चक्रवर्तीके लक्ष्मीवान् पुत्र हैं और जयकुमार आपका सेवक है। आपको छोडकर अकम्पनराजाने जयकुमारको अपनी कन्या दी, यह उसने बडी भारी दुष्टता की है" । इस प्रकार वचनरूपी हवासे उसने अर्ककीर्तिकी क्रोधरूपी अग्निको प्रदीप्त किया । दुर्मर्षणके वचन सुनकर अर्ककीर्तिने इस प्रकार विचार किया कि इस दुष्ट अकम्पनने मेरा अपमान कर सुलोचना कन्या जयकुमारको दी । चक्रवर्तीके भयसे जयकुमारको बंधा हुआ वीरपट्ट मैंने सहन किया । परन्तु मेरे सौभाग्यको-मंहती योग्यताको नष्ट करनेवाला यह जयकुमारको वरनेका कार्य मैं कैसे सहूं ? इस प्रकार विचार कर जिसने मर्यादा छोड़ी है, ग्राह्याग्राह्यका विचार करनेमें जिसकी मति कुंठित हुई है ऐसा अर्ककीर्तिकुमार अविचारसे कल्पान्तकालके मेघसमान युद्धके लिये उद्यत हुआ ।। ६३-७० ॥ [ अनवद्यमति मंत्रीके हितोपदेशकी विफलता ] मन्त्रीके लक्षणोंसे युक्त अनवद्यमति नामका मन्त्री अर्ककीर्तिको इस प्रकार न्याय्य और हितकर वचन कहने लगा। "हे कुमार, तुम्हारे इक्ष्वाकु वंशसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है । और दानतीर्थकी प्रवृत्ति कुरुवंशके धारक पुरुषोंसे हुई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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