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________________ तृतीयं पर्व रथे महेन्द्रदत्ताख्यः कञ्चुकी तां समाययौ। आरोप्य मण्डपे कन्या रूपेण जितसदतिम्।।४८ तदा पुरात्समागत्यं कृती जितपुरंदरः । सुप्रभासहितो राजा सोऽस्थान्मण्डपसंनिधिम् ॥४९ समस्तकटकं सम्यक् संनाह्य सानुजो बली। हेमाङ्गदः समायासीत्प्रीत्या च परितो मुदा ॥५० स्थित्वा महेन्द्रदत्तोऽपि रत्नमालाधरो रथे । सुलोचनामुवाचेति दर्शयन्खगनायकान् ॥५१ कन्येऽयं च नमेः पुत्रो दक्षिणश्रोणनायकः । सुनमी रोचते तुभ्यं वियतां त्रियतामिति ॥५२ अयं सुविनमी राजोत्तरश्रेणिखगाधिपः । सुनमः संततिश्चान्ये खगास्तेन निदर्शिताः ॥५३ कञ्चुकी दर्शयन्नेवं दर्शयामास भूमिपम् । अर्काभमर्ककारव्यं चक्रिपुत्रं स्फुरद्गणम् ।।५४ साथ मुक्त्वार्ककीादीनजेया जयमागता । मुक्त्वाखिलान्द्रुमांश्चूतं वसन्ते कोकिला यथा॥५५ तत्र रक्तं मनो मत्वा तस्याः प्रोवाच कञ्चुकी । जयोऽयं जगति ख्यातः सोमप्रभसुतः शुभः॥५६ अस्य रूपं कथं वयं यदेतदतिमन्मथम् । स आदर्शेऽर्पणीयः किं हस्तः कङ्कणलोकने ॥५७ उत्तरे भरते देवाञ्जित्वा मेघकुमारकान् । कृतोऽनेन मृगेड्नादो जिततन्मेघसुस्वनः ॥५८ चक्रिणा स्वभुजाभ्यां हि बबन्धे वीरपट्टकम् । चक्रे मेघस्वराख्यास्य हृष्ट्वा सेनापतीकृते ॥५९ तदा जन्मान्तरस्नेहाद् दृष्ट्या तं सुन्दराकृतिम् । कुन्दाभांस्तद्गुणाञ्श्रुत्वा मुमुदे सा च मानिनी।।६० समुत्क्षिप्य रथादेषा कन्या कञ्चुकिनः करात् । रत्नमालां समादाय चिक्षेप तत्सुकन्धरे॥६१ सुनमि विद्याधर नमि विद्याधरेशका पुत्र है । यदि तुझे यह पसंद हो तो तू इसे वर । हे कन्ये, यह सुनमीका पुत्र सुविनी विद्याधर राजा उत्तरश्रेणीका स्वामी है" इस तरह अन्य अनेक विद्याधरोंको महेन्द्रदत्तने दिखाया । इस प्रकार अनेक राजाओंको दिखाते हुए महेन्द्रदत्तने सूर्यसम कान्तिधारक, जिसके गुण स्फुरित हो रहे हैं ऐसे चक्रवर्तीके पुत्रा अर्ककीर्तिको दिखाया ॥५२-५४॥ वसन्तऋतुमें जैसे कोकिला सम्पूर्ण वृक्षोंको छोडकर आम्रवृक्षका आश्रय लेती है वैसेही किसीसे भी नहीं जीती जानेवाली सुलोचना जयकुमार राजाके पास आई। जयकुमारके ऊपर कन्याका मन अनुरक्त हुआ है ऐसा जानकर कञ्चुकीने कहा “ यह जयकुमार सोमप्रभ राजाका पुत्र है। समस्त संसारमें इसकी कीर्ति फैली है और यह शुभ विचारोंका धारक है ॥ ५५-५६ ॥ इसके रूपका कैसे वर्णन होगा ? क्योंकि वह मदनके रूपको भी उल्लंघनेवाला है। हाथकंकनको क्या आरसीकी जरूरत होती है ? उत्तर भारतमें इसने मेधकुमार देवोंको जीतकर उनके मेधके समान स्वरको जीतनेवाला सिंहनाद किया था। उस समय चक्रवर्ती भरतने अपने दोनों बाहुओंसे इसके मस्तकपर वीरपट्ट बांधकर इसे सेनापतिपद दिया और आनंदित हो कर मेघस्वरपद प्रदान किया।" उस समय सुंदर आकृतिबाले जयकुमारको देखकर तथा कुन्दके समान उसके उज्ज्वल गुणोंको देखकर पूर्वजन्मके स्नेहसे वह सुलोचना आनन्दित हो गई ॥ ५७-६० ॥ तदनन्तर २थसे उतरकर सुलोचनाने कञ्चुकीके हाथसे रत्नमाला ली और जयकुमार राजाके सुन्दर गलेमें पहना दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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