________________
पाण्डवपुराणम् सर्वार्थः सिद्धसर्वार्थः श्रुत्वोवाच वचो वरम् । भूगोचरेण संबन्धः स नः पूर्व हि विद्यते ॥३८ विद्याधरेण संबन्धोऽपूर्वोऽस्त्वस्याः सुखप्रदः । श्रुत्वेति सुमतिः प्राह युक्तमेतत्र सांप्रतम् ॥३९ स्वयंवरविधिः कार्यः किंतु सर्वसुखावहः । श्रुत्वेत्यकम्पनो धीमान्वरमाह निवेद्य च ॥४० सुप्रभाया इदं कार्य तथा हेमाङ्गदस्य च । समानेतुं महीपालानादिदेश वचोहरान् ॥४१ तदा ज्ञात्वा सुसंबन्धं विचित्राङ्गदसंज्ञकः । सौधर्मादागतो देवोऽकम्पनं प्रत्यभाषत ।।४२ स्वयंवरविधि तस्या वीक्षितुं वयमागताः । इत्युक्त्वोपपुरे भागे ब्रह्मस्थानोत्तरे पुरे ।।४३ प्राङ्मुखं सर्वतोभद्रं प्रासादं बहुभूमिकम् । विधाय विधिवद्धीमांस्तं परीत्य विशुद्धदृक् ।।४४ मुदा निष्पादयमास स्वयंवरसुमण्डपम् । ततो महीभृतः सर्वे त्रिसमुद्रान्तरस्थिताः ।।४५ तल्लेखाथ परिज्ञाय प्रापुर्वाणारसी पुरीम् । स्वोचितेषु नृपास्तत्र स्थानेषु स्थितिभाजिनः ॥४६ सुलोचनाथ सिद्धार्चा चर्चयित्वा समग्रहीत् । सिद्धशेषां कृतस्नाना कृतनेपथ्यमण्डना ।।४७
अतः यह सम्बन्ध सुलोचनाको सुखद होगा "। सिद्धार्थ मन्त्रीका भाषण सुनकर सुमति मन्त्रीने कहा कि आपका “ यह कहना युक्त है परन्तु इस समय स्वयंवरविधि करना चाहिये और वह सबको सुखदायक होगा।" सुमति मन्त्रीका भाषण सुनकर बुद्धिमान् अकम्पन राजाने उसकी बात मान ली और अपनी सुप्रभा रानी तथा ज्येष्ठ पुत्र हेमाङ्गदको यह बात सुनायीं । तदनंतर सर्व राजाओंको लानेके लिये दूतोंको आज्ञा दी ॥ ३८-४१ ॥ उस समय स्वयंवर पद्धतिको जानकर स्वर्गसे आये हुए विचित्राङ्गद देवने अकम्पन राजाको कहा, " हे राजन् , स्वयंवरविधिकी तयारी करनेके लिये हम आये हैं।" ऐसा कह कर वाराणसी नगरमें उसके समीप ब्रह्मस्थानकी उत्तर दिशामें पूर्व दिशाकी तरफ मुखवाला अनेक तलोंसे भूषित सर्वतोभद्र नामक प्रासाद निर्माण कर उसके चारों तरफ उस सम्यग्दृष्टि बुद्धिमान् देवने आनन्दसे स्वयंवरमण्डपकी रचना की । इसके अनन्तर तीन समुद्रोंसे मर्यादित भूप्रदेशोंमें रहनेवाले सर्व राजगण अकम्पनराजाके लेखार्थको ( कुंकुमपत्रिका ) प्राप्त कर वाराणसी नगरको आये और स्वयंवरमण्डपमें अपने योग्य स्थानपर बैठ गये ॥ ४२-४६ ॥ तदनन्तर स्नानोत्तर वस्त्राल ड्कार धारण कर सुलोचनाने सिद्धप्रतिमाका पूजन किया और सिंधशेषा मस्तकपर धारण की ॥ ४७ ॥
सुलोचना जयकुमारको वरती है अपने रूपसे रतिको जीतनेवाली कन्या सुलोचनाको रथमें विराजमान कर महेन्द्रदत्त कञ्चुकी स्वयंवरमण्डपमें आया। उसी समय ऐश्वर्यसे इन्द्रको जीतनेवाले विद्वान् अकम्पन राजा भी सुप्रभा रानीसहित मण्डपमें पधारे । बलवान् हेमाङ्गदकुमार अपने छोटे भाईयोंके साथ समस्त सैनिकोंसे सज्ज होकर आनन्द और स्नेहसे स्वयंवर -मण्ड में गये । महेन्द्रदत्त कञ्चुकी रत्नमाला हाथमें लेकर रथमें बैठा था; वह विद्याधर राजाओंको दिखाता हुआ सुलोचना कन्याको इस प्रकार कहने लगा ॥ ४८-५१ ॥ " पुत्री, यह दक्षिणश्रेणीका अविपति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org