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________________ ५० श्रीशान्तिपुराणम् कि मुह्यते व्यवैतत्स्वामिनो भवताग्रतः। न संस्मरत कि यूयं 'भावत्की कुलपुत्रताम् ।।२५॥ स्वामिप्रसावदानानां कुरुध्वं किं न नि.क्रयम् । एभिविनश्वरैः प्राणः प्रस्तावोऽन्यो न विद्यते ॥२६॥ भीतिमुज्झत शौण्डोयं भजध्वं सुभटोचितम् । प्रच्छन्तीं किमिति ब्रूतं प्राप्य गेहमपि प्रियाम् ॥२७॥ सिसंग्रामयिषुः कश्चिदपरान्नि निवृत्सतः । इत्युक्त्वा स्थापयामास वाग्मितायाः फलं हि तत् ।।२८।। [ युगलम् ] खेटमग्रे निधायकं सुवृत्तं पुलकाञ्चितम् । अनुरक्तं स्वमप्युच्चररक्षत्स्वामिनं शरात् ॥२६॥ *उत्सालं शरघातेन कुर्वतोऽपि मुहुर्मुहुः । “स्वारूढो न पपातान्यः स्थूरीपृष्ठस्य पृष्ठतः ॥३०॥ शरपातभयाभूमि विहाय व्योम्नि यः स्थितः । स तमप्यवधीबाणः को हि मृत्योः पलायते ॥३१॥ पतत्सु शरजालेषु पतितं सादिनं ययुः । नात्यजद्विधुरे 'जात्यः को वा स्वामिनमुज्झति ॥३२॥ असमैराजि'धूलीभिर्यद्वपुर्दू सरीकृतम् । क्षालितं तदुपस्वामि केनचिद्रण शोरिणतः ॥३३॥ त्याग से ही हो सकता है-ऐसा मानता हा कोई योद्धा घावों से पीड़ित होने पर भी स्वामी के आगे खडा था ॥२४|| क्यों भल रहे हो इस स्वामी के प्रागे होमो, क्या तुम अपनी कुल पूत्रता का स्मरण नहीं करते ? ।।२५।। स्वामी के प्रसाद और दान का बदला इन विनश्वर--एक न एक दिन नष्ट हो जाने वाले प्राणों से क्यों नहीं चुकाते हो? दूसरा अवसर नहीं है ॥२६॥ भय छोड़ो और सुभटों के योग्य शौर्य को ग्रहण करो। घर पहुंच कर भी क्या है ? इस तरह पूछने वाली स्त्री से क्या कहोगे ? ॥२७।। इस प्रकार कह कर युद्ध से पीछे हटने वाले अन्य योद्धाओं को युद्ध करने के इच्छुक किसी योद्धा ने खड़ा रक्खा था-भागने नहीं दिया था सो ठीक ही है क्योंकि वक्तृत्वशक्ति का फल वही है ।।२।। सुवृत्त-अच्छो गोल ढाल तथा सुवृत्त--सदाचार से युक्त, रोमाञ्चित और अनुराग से युक्त अपने आपको भी मागे कर किसी ने वारण से स्वामो की अच्छी तरह रक्षा को थी ॥२६।। वाणों के आघात से कोई घोड़ा यद्यपि बार बार उछल रहा था तथापि संभल कर बैठा हुआ अन्य योद्धा उसकी पीठ से नीचे नहीं गिरा था।॥३०॥ जो योद्धा वारणपात के भय से पृथिवी को छोड़ आकाश में स्थित था, अपराजित ने उसे भी वारणों से मार डाला । यह ठीक ही था क्योंकि मृत्यु से कौन भाग सकता है ? ॥३१॥ वाण समूह के पड़ने पर नीचे गिरे हुए सवार को घोड़ा ने छोड़ा नहीं था क्योंकि कष्ट पड़ने पर कौन कुलीन प्राणी अपने स्वामी को छोड़ता है ? ||३२|| किसी योद्धा ने अपना जो शरीर युद्ध की विषमधूली से धूसरित हो गया था उसे स्वामी के समीप युद्ध के रक्त से धोया था ॥३३।। किसी सुभट के हृदय में गड़े हुए बाण को स्वामी ने अपने हाथ से उस प्रकार निकाल दिया १ भवत इयं भावत्को ताम् २ संग्रामयितुमिच्छु : ३ युद्धान् निवृत्तिमिच्छतः ४ उत्प्लवनं ५ सुष्ठ आरूढ: स्वारूढः ६ अश्वस्य ७ अश्वः ८ कुलीनः ६ युद्धधूलीभिः : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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