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________________ पंचम सगी ४६ तं लक्ष्यीकृत्य तत्सैन्यप्रहितास्त्रशताकुला । द्यौर मूत्क्वापि यातेव शस्त्रक्षतिभयात्ततः ॥१६॥ क्वचिदेकमनेकं च निघ्नानः समरे मुहुः । हस्त्यश्वरथपादातं 'समवर्तीव सोऽभवत् ॥१७॥ प्रचचाल न तच्चकं तेनाकान्तं धनुर्विदा । जीवग्राहं गृहीत्वेव निक्षिप्तं शरपञ्जरे ॥१८॥ केचित्पेतुः शरैस्ताः केचिद्धेमुरितस्ततः । अन्ये च ववमू रक्त मम्लुरेके नमश्चराः ॥१६॥ एकानेकप्रदेशस्थ: सर्वव्यापी महानणुः । इत्यसौ परमात्मेव कैश्चित्संशय्य वीक्षितः ॥२०॥ अनन्यसदृशं वाणमवगाह्य हृदि स्थिनम् । व्यपोहयत्स्वतः कश्चित्प्रसादं न पुनः प्रभोः ॥२१॥ कश्चित्प्रसाद वित्तानां भूयसा न मृतेस्तथा । एकस्याभृतभृत्यस्य यथादयत सत्प्रभुः ।।२२।। सैन्ये भग्ने प्रभोरग्रे अद्वित्रैः कैश्चिदपि स्थितम् । कस्यचित्कृच्छसाहाय्यं न हि सर्वैविधीयते ॥२३।। प्रारणवित्तव्ययेनैव नि:कृत्यं स्वामिसत्कृतैः । मन्यमानो व्रणाततॊऽपि कश्चित्प्रष्ठोऽभवत्प्रभोः॥२४।। सादृश्य इसलिये था कि जिसप्रकार वाण पङ्खों से युक्त होता है उसी प्रकार कंक पक्षी भी पङ्खों से युक्त था तथा जिस प्रकार वारण का तुण्ड-अग्रभाग तीक्ष्ण-पेना होता है उसी प्रकार कंक पक्षी का तुण्ड-मुख भी पैना था ।।१५।। अपराजित को लक्ष्य कर दमितारि के सैनिकों के द्वारा छोड़े हुए सैकड़ों अस्त्र शस्त्रों से व्याप्त आकाश ऐसा जान पड़ता था मानों शस्त्र प्रहार के भय से वहाँ से कहीं चला गया हो ।।१६।। युद्ध में हाथी घोड़े रथ और पैदल सैनिकों में से कहीं एक को कहीं अनेक को वार वार मारता हुआ वह यमराज के समान हुआ था ॥१७॥ उस धनुर्विद्या के जानकार अपराजित के द्वारा प्राकान्त दमितारि का चक्र नहीं चल रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों जीवित पकड़ कर वारणों के पिंजडे में डाल दिया गया हो।।१८।। वारणों से ग्रस्त होकर कितने ही विद्याधर गिर पड़े थे, कितने ही इधर उधर घूमने लगे थे, कोई रक्त उगलने लगे थे और कोई म्लान हो गये थे ॥१६॥ वह कभी एक प्रदेश में स्थित होता था, कभी अनेक प्रदेशों में स्थित होता था, कभी सर्व व्यापक दिखाई देता था, कभी महान् मालूम होता था और कभी सूक्ष्म जान पड़ता था, इसलिये क्या यह परमात्मा के समान है ऐसा संशय कर किन्हीं लोगों के द्वारा देखा गया था ।।२०।। जो घुस कर हृदय में स्थित था ऐसे असाधारण वारण को किसी योद्धा ने स्वयं निकाला था परन्तु घुस कर हृदय में स्थित प्रभु के प्रसाद को नहीं निकाला था। भावार्थ- शत्रु की मार खा कर भी किसी कृतज्ञ योद्धा ने स्वामी के उपकार को नहीं भुलाया था ।।२१।। जिनका प्रसाद ही धन है ऐसे बहुत योद्धाओं के मरने से कोई समीचीन ( गुणज्ञ ) राजा उस प्रकार दुखी नहीं हया था जिसप्रकार कि भरणपोषण से रहित एक सेवक के मरने से दुखी हुआ था ।।२२।। सेना के नष्ट हो जाने पर किसी राजा के आगे कोई दो तीन सेवक ही खड़े रह गये थे, शेष सब भाग गये थे सो ठीक ही है क्योंकि कष्ट में सहायता सब के द्वारा नहीं की जाती ।।२३। स्वामी ने जो हमारा सत्कार किया है हमारे साथ अच्छा व्यवहार किया है उसका बदला प्राणरूप धन के १यम इव २ प्रसाद एव वित्तं येषां तेषाम् ३ द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राःत: ४ अग्रगामी 'प्रष्ठोग्रगामी श्रेष्ठः' इति विश्वलोचनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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