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श्रीशान्तिनाथपुराणम्
तं प्राप्याप्राकृताकारं दुनिरीक्ष्यं स्वतेजसा । निश्चला लिखितेवाभूव क्षरणं शत्रुपताकिनी ॥७॥ द्विषतां शस्त्रसंपातं प्रतीक्षामास धीरधीः । को हि नाम महासत्वः पूर्व प्रहरति द्विषः ।।८।। ततः सैन्याः समं सर्वे तस्मिन्नस्त्राण्यपातयन् । अध्याति प्रावृडारम्भे तोयानीव घनाघना ॥ संतय॑ सिंहनादेन प्रतिद्वन्द्विमहाबलम् । प्राकरणं धनुराकृष्य क्षेप्तु वारणान्प्रचक्रमे ॥१०॥ क्षिपन्प्रतिभटं वाणांश्चारैभ्राम्यन्नितस्ततः । इति प्रववृते योख स्वं रक्षन् द्विषवायुधात् ॥११॥ सैन्यमुक्तान् शरान्नकान् द्राङ निकृत्यान्तरात्समम् । तानप्यपातयद्वारगर्नोरन्ध्र कवचानपि ॥१२॥ "एकश्चलाचलान्क्षिप्रं दुराभ्यर्णस्थितानरीन् । स शरयुगपद्वीरो विव्याधान्तरितानपि ॥१३॥ अनेकशो बहिर्धाम्यन्विरराज सकामुकः । स परेभ्यः परेभ्योऽपि तव्यूहमिव पालयन् ॥१४॥ वेगात्पक्षवताभ्येत्य तीक्ष्णतुण्डेन पातितः । यः शरेण स कंकेन तादृशैवात्मसात्कृतः ॥१५॥
के समान माना था। यह ठीक ही है क्योंकि महान् पुरुषों को भविष्यत् भी भूत के समान जान पड़ता है ॥६।। जिसका आकार असाधारण था तथा अपने तेज से जिसे देखना कठिन था ऐसे अपराजित को प्राप्त कर शत्रुओं की सेना क्षणभर में लिखित के समान निश्चल हो गयी ।।७।। धीर वीर बुद्धि का धारक अपराजित शत्रुओं के शस्त्रप्रहार की प्रतीक्षा करने लगा क्योंकि ऐसा कौन महापराक्रमी है जो शत्रुओं पर पहले प्रहार करता है ।।८।।
तदनन्तर जिसप्रकार बरसात के प्रारम्भ में मेघ पर्वत पर जल छोड़ा करते हैं उसी प्रकार सब सैनिक एक साथ उस पर शस्त्र गिराने लगे ॥६॥ सिंह नाद के द्वारा शत्रुनों की बड़ी भारी सेना को भयभीत कर तथा कान तक धनुष खींच कर वह बाण छोड़ने के लिये तत्पर हुआ ॥१०॥ जो प्रत्येक योद्धा पर बाण छोड़ता हुआ गति विशेष से इधर उधर घूम रहा था तथा शत्रु के शस्त्र से अपनी रक्षा कर रहा था ऐसा अपराजित युद्ध करने के लिये इसप्रकार प्रवृत्त हुआ ॥११। सैनिकों के द्वारा छोड़े हुए अनेक बाणों को वह बीच में ही एक साथ शीघ्र ही काट कर अपने बाणों से उन सैनिकों को भी तथा उनके कवचों को भी उस तरह गिरा देता था जिस तरह उनके बीच में कोई रन्ध्र नहीं रह पाता था। भावार्थ-उसने मृत सैनिकों तथा उनके कवचों से पृथिवी को सन्धि रहित पाट दिया था ।।१२।। शत्रु चाहे अत्यन्त चञ्चल हों, चाहे दूर या निकट में स्थित हों अथवा छिपे हुए हों, उन सबको वह वीर अकेला ही शीघ्र तथा एक साथ बाणों के द्वारा पीडित कर रहा था॥१३॥ वह अनेकों बार धनुष सहित बाहर घूमता हुआ सुशोभित हो रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों बड़े से बड़े शत्रुओं से उस व्यूह की रक्षा ही कर रहा हो ॥१४।। पक्षों से युक्त तथा तीक्ष्ण अग्रभाग वाले बाण ने वेग से आकर जिसे गिरा दिया था उसे उसीके समान पक्षों-पङ्खों से युक्त तथा तीक्ष्णमुख वाले कंक पक्षी ने अपने अधीन कर लिया था। भावार्थ-बाण के प्रहार से कोई योद्धा नीचे गिरा और गिरते ही कंक पक्षी ने उसे अपने अधीन कर लिया। बाण तथा कंक पक्षी में
१ असाधारणाकारम् २ शत्रुसेना ३ भदौ इति भध्यद्रि४ छित्त्वा ५ अतिशयेन चला इति बलाचलास्तान् ।
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