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________________ *ewanapacecreame* पंचमः सर्गः *opencerzzameen* ततः 'सज्यं धनुस्तेन क्रमारास्फालितं मुहुः । सजलाभ्रमिवामन्द्रं दध्वानोच्.निरन्तरम् ॥१॥ लीलयाकृष्य तूणीराइक्षिणेन करेण सः । सायकं तुलयामास प्रतिपक्षं च चक्षुषा ॥२॥ मापदन्तगिरि धातुरेणुजालारणं बलम् । तत्प्रतापाग्निना दूरात्कोडीकृतमिवाभवत् ॥३॥ खावापृथिव्योरपि यत्प्रथिम्ना न ममे परम् । क्षणादेव दृशा तेन ममे तद्विषतां बलम् ॥४॥ तदृष्टिगोचरं प्राप्य न "पुरेवारिसंहतिः । व्यद्योतिष्ठ समासन्ने को वा भाति पराभवे ॥५॥ अनन्तमपि तत्सैन्यमपर्याप्तमिवात्मनः । मेने हि महतां भाव्यं भूतवत्प्रतिभासते ॥६॥ पंचम सर्ग तदनन्तर अपराजित के द्वारा क्रम से बार बार प्रस्फालित डोरी सहित धनुष सजलमेध के समान निरन्तर जोरदार शब्द करने लगा ॥१॥ उसने दाहिने हाथ के द्वारा लीला पूर्वक तरकस से बाण खींच कर उसे तोला-हाथ में धारण किया और नेत्रों से शत्रु को तोला-उसकी स्थिति को प्रांका ॥२॥ पहाड़ों के बीच में आने वालो तथा गेरू आदि धातुओं की धूलो के समूह से लालवणं वह सेना दूर से ऐसी जान पड़ती थी मानों अपराजित की प्रतापरूप अग्नि ने ही उसे अपने मध्य में कर लिया हो ॥३॥ आकाश और पृथिवी के अन्तराल की विशालता के द्वारा भी जिसका माप नहीं हो सका था शत्रुओं को वह सेना अपराजित ने अपनी दृष्टि के द्वारा क्षणभर में माप ली । भावार्थदेखते ही उसने शत्रुसेना को विशालता को समझ लिया ॥४॥ शत्रुनों का समूह अपराजित की दृष्टि का विषय होने पर पहले के समान देदीप्यमान नहीं रहा सो ठीक ही है क्योंकि पराभव के निकट होने पर कौन सुशोभित होता है ? अर्थात् कोई नहीं। भावार्थ-शत्रुओं को सेना जैसी पहले उछल कूद कर रही थी अपराजित के देखने पर वैसी उछल कूद नहीं रही। पराभव की आशंका से उसका उत्साह शान्त हो गया ।।५।। यद्यपि वह सेना अनन्त थी तथापि अपराजित ने उसे अपने लिये अपर्याप्त १ समौर्वीकम् २ गम्भीरम, ३ इषधेः ४ शत्रुम् ५ पूर्ववत् ६शत्रुसमूहः ७ भविष्यत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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