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श्री शान्तिनाथपुराणम्
त्रस्यन्तीं 'परवाहिनी कलकलात्त्रायस्व कन्यामिति
व्याजेन प्रतिषिध्य सूरिशपथैरप्याहवाद्भ्रातरम् । स्वं वा सद्गुणसंपदातिललितं चाप बलीकुवंता
तेनाकारि तदेव निर्गु रंगमिव क्षात्रं तबभ्यापतत् ॥१०२॥ इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे परबलसंदर्शनो नाम * चतुर्थः सर्गः *
कलकल से डरती हुई कन्या की रक्षा करो' इस बहाने बहुत भारी शपथों द्वारा भाई अनन्तवीर्य को युद्ध से मना कर अपने समान समीचीन गुण रूपी सम्पदा से ( पक्ष में श्रेष्ठ प्रत्यन्चा रूप सम्पदा से ) अतिशय सुन्दर धनुष को चढ़ाने वाले प्रपराजित ने उसी समय सामने आने वाले क्षत्रिय समूह को निर्गुण - क्षात्र धर्म से रहित जैसा कर दिया था ॥ १०२ ॥
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इस प्रकार महाकवि असग के द्वारा रचित शान्तिपुराण में शत्रुसेना को दिखाने वाला चतुर्थ सर्ग पूर्ण हुआ ||४||
१ शत्रु सेना २ गुणरहितं क्षात्रधर्म रहितमिव ३ सम्मुखमागच्छत् ।
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