SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ चतुर्थ सर्ग: दत्त्वा सर्वस्वयिभ्यः प्रोत्थाप्य स्वकुलध्वजान् । त्वरितं प्रस्थितं रैरग्रिमस्कन्धवाञ्छया ॥४॥ इभवाजितनुत्राय: सामन्तान्स्वान्तरंमकान् । संविभज्य यथायोग्यं त्वरमारणानितस्तत: ।।६।। क्लिष्टकार्पटिकानाथदीनाथिभ्यः समन्ततः । इच्छादानं दिशन्नामः कुलवृद्धानपार्थयन् ॥६६॥ प्रहतानेकतूर्योधप्रध्वानवनयन्दिशः । अनेकाक्षौहिणीलक्षः २पिदघद्रोदसी बलः ॥७॥ वेष्टितः परितो मौलरात्तनिस्त्रिशभीषणः । साहिशाखाशताकोणं हपयन् चन्दनमम् ।।१८।। प्रारुह्य धोरधोरेयं 'रथमामन्द्रनिस्वनम् । सांग्रामिकं विराजन्तं सिंहलक्ष्मपताकया ॥६६॥ *भासमानांशुचक्रेरण चक्रेरणाग्रेसरेण सः । भीषणो निरगावित्थं दमितारिः पुरात्ततः ॥१०॥ (षड्भिः कुलकम् ) शार्दूलविक्रीडितम् 'पादातं 'प्रधनत्वराविषमितं कृत्वा समं सर्वतो मध्ये १°हास्तिकमारचय्य रथिनामश्वीयरक्षावताम् । सेनान्या तदिति प्रकल्प्य रचनामानीयमानं शनै: प्रद्राक्षीदपराजितो रिपुबलं दूरावदूरोदयः" ॥१०१॥ कर दिया ||१४|| जहां तहाँ सीघ्रता करने वाले अपने अन्तरंग सामन्तों को हाथी घोड़ा तथा कवच आदि के द्वारा यथायोग्य विभक्त कर जो दुखी, कार्पटिक, अनाथ और दीन याचकों के लिये सब ओर इच्छानुसार दान देने का आदेश दे रहा था, जो कुल के वृद्धजनों को नमस्कार कर सन्मानित कर रहा था, जो बजाये हुए अनेक वादित्र समूह के शब्दों से दिशाओं को शब्दायमान कर रहा था, अनेक अक्षौहिणी दलों से युक्त सेनाओं के द्वारा जो आकाश और पृथिवी के अन्तराल को पाच्छादित कर रहा था, ग्रहण की हुई तलवारों से भयंकर मूलवर्ग-मंत्री आदि प्रधान लोग जिसे चारों ओर से घेरे हुए थे, और इस कारण जो सर्प सहित सैकड़ों शाखाओं से युक्त चन्दन के वृक्ष को लज्जित कर रहा था, तथा जो देदीप्यमान किरण समूह से युक्त, आगे चलने वाले चक के द्वारा भयंकर था ऐसा वह दमितारि, जिसमें धैर्यशाली घोड़े जुते हुए थे, जिसका गम्भीर शब्द था तथा जो सिंह के चिह्न वाली पताका से सुशोभित था ऐसे युद्ध-कालीन रथ पर सवार होकर नगर से बाहर निकला ।।१५।।--।।१०।। तदनन्तर युद्ध को शीघ्रता से विषम अवस्था को प्राप्त पैदल सैनिकों के समूह को सब ओर व्यवस्थित कर तथा हाथियों के समूह को अश्वसमूह की रक्षा करने वाले रथारोहियों के मध्य में करके 'यह वह है-अमुक व्यूह है' इस प्रकार की कल्पना कर सेनापति ने जिसकी रचना की थी ऐसी शत्रु सेना को निकटवर्ती अभ्युदय से युक्त अपराजित ने धीरे धीरे दूर से देखा ॥१.१॥ 'शत्रु सेना के १ तनुन कवचम् २ द्यावापृथिव्योरन्तराले ३ गृहीतखड्गभयंकरः ४ समर्पशाखाशतव्याप्तम् ५ धीरवाहयुक्त ६ गंभीरशब्दम् ७ भासमान देदीप्यमानम् अंशुचक्र फिर रणसमूहो यस्य तेन ८ पदातीनां समूहः पादातम् । युद्धशीघ्रताविषमितम् १. हस्तिनां समूहो हास्तिकम् ११ निकटाभ्युदयः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy