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पंचम सर्गः हृदयात्कस्यचित्पत्तेः कीलितं सायकं प्रभुः । अपनिन्ये स्वहस्तेन स्वं 'तुरुक्तमिवादृतः ॥३४॥ कश्चित्पलायमानेषु स्वान्तरंगेषु दुर्भगान् । भृत्यान् पुरःसरान दृष्ट्वा प्रभुर्लज्जाकुलोऽभवत् ॥३५।। शरैः प्रोतोरुकः कश्चिद्धावतोऽप्यपतस्हयात् । प्रानम्य कायमायच्छन् किमपीदं मृतोऽप्यमात् ॥३६।। प्रसिरेव पपातोच्चैः शरै. शकलिताद्भुजात् । कस्यचिद्दक्षिणाद्वाभाद्य द्धोत्साहो न मानसात् ।।३७।। मूर्छाखेरितमभ्येत्य शृगालः शवशङ्कया । प्रकाण्डस्फुरणात्तस्य ससार भयविह्वलः॥३८।। उच्चै रेसुः शिवा मत्ताः प्रपीय रुधिरासवम् । शीर्णसंनहनच्छेदनीलाम्भोरुहवासितम् ॥३६॥ शरपातमयात्कैश्चिनिवृत्तं प्रियजीवितैः । अभिशत्रुशरं कैश्चित्प्रयातं प्रियपौरुषैः ।।४।। स्मरमिः स्वामिसम्मानं मानमालम्ब्य यत्नतः । पतितैरुत्थितं कैश्चिन्नि चितैरपि सायकैः ॥४१॥ रथिका न रबैरेव तेन दूरं वियोजिताः । मुञ्चता शरसंघातं चित्रैरपि मनोरथैः ॥४२॥ निशातशरसंपातासीवदानमसीकरम् । मनसा वपुषा पचासीद्विहस्तं हास्तिकं तदा ॥४३॥ उल्लङ्घयारूढमप्येको द्विपः क्षोवः शराहितः । स्वसेनां चूर्णयामास तन्मदान्धस्य चेष्टितम् ॥४४॥
था जिसप्रकार आदर को प्राप्त हुआ मनुष्य अपने दुर्वचन को किसी के हृदय से निकाल देता है ॥३४॥ कोई एक राजा भागने वाले अपने अन्तरंग पुरुषों में अपने प्रभागे सेवकों को आगे देख लज्जा से व्याकुल हो गया था ॥३५।। घुड़ सवार की जांघे वाणों से छिद गयी थी उतने पर भी वह दौड़ते हुए घोड़े से नीचे गिर गया । इस स्थिति में वह शरीर को नम्रीभूत कर लम्बा पड़ रहा । कवि कहते हैं यह क्या है वह तो मर कर भी सुशोभित होता ॥३६॥ वाणों के द्वारा खण्डित किसी की दाहिनी अथवा बांयी भुजा से तलवार ही ऊपर गिरी थी मन से युद्ध का उत्साह नहीं गिरा था ॥३७॥ किसी मूच्छित सुभट को मुर्दा समझ कर शृगाल उसके पास गया परन्तु वह असमय में ही हाथ पैर चलाने लगा, इसलिये भय से घबड़ा कर शृगाल भाग गया ॥३८॥ जीर्ण शीर्ण हड्डी के खण्ड रूपी नील कमलों से युक्त रुधिर रूपी मदिरा को पीकर पागल हुए शृगाल उच्च स्वर से शब्द कर रहे थे ॥३६॥ जिन्हें जीवन प्रिय था ऐसे कितने ही सुभट वारणवर्षा के भय से लौट गये थे और जिन्हें पौरुष प्रिय था ऐसे कितने ही सुभट शत्रु के वाणों के सन्मुख गये थे ॥४०॥
वारणों से छिदकर नीचे पड़े हुए कितने ही योद्धा स्वामी के सन्मान का स्मरण करते हुए मान का आलम्बन ले यत्नपूर्वक उठकर खड़े हो गये ।।४१।। वारण समूह को छोड़ने वाले अपराजित ने न केवल रथारोहियों को रथ से दूर वियुक्त कर दिया था किन्तु नानाप्रकार के मनोरथों से भी वियुक्त कर दिया था ॥४२॥ तीक्ष्ण वाणों की लगातार वर्षा से जिनकी मदरूपी स्याही और करसूड नष्ट हो गयी है ऐसे हाथियों का समूह उस समय मन और शरीर-दोनों से विहस्त-विवश और सूड रहित हो गया था ॥४३॥ वाणों से पीड़ित एक पागल हाथी ने अपने सटार को भी कुचल
१ दुर्वचनमिव २ खण्डितात् ३ व्याप्तरपि ४ बहुप्रकारैः ५ विवशम् हस्तरहित च ।
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