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श्रीशांतिनाथपुराणम्
उपहारीकृताशेषशिरीष कुसुमावलिम् । व्याददात्याननं हंसी प्राप्य शैवलशङ्कया ॥ ४६ ॥ इदं राजकुलद्वारं नानाविधजनाचितम् । केनाप्येकीकृतं द्रष्टुं त्रैलोक्यमिव राजते ॥५०॥ नानापत्रान्वितं ' भास्वद्रत्नाभरणभासुरम् । राजकं बाह्यभूमिस्थमेतद्दिव्यवनायते ॥ ५१ ॥ शिखानरसनादामनूपुरैर्वारयोषितः । इतस्ततः प्रयान्त्येताः सस्मरज्यार वा इव ।। ५२ ।। एष दौवारिकै रुद्धो विवक्षितजनः परम् । वदन्नपि प्रियं किञ्चिदनुशय्य निवर्तते ॥ ५३ ॥ अन्तर्मदवशात्कश्विन्निमील्य नयनद्वयम् । निराशङ्क विशन्त्येते राजवल्लभकुञ्जराः ॥५४॥ छलयन्तो जगत्सर्वमेते प्रच्छन्नदुर्नया: । पिशाचा इव यात्यन्तल्लनमर्थाधिकारिणः ||५|| श्रनुयातः समं शिष्यैर्वदन्तः शास्त्रसंकथाम् । तृणायापि न भोगार्थान्मन्यमानाः स्वबोधतः ॥५६॥ सदा सर्वात्मनाश्लिष्टाः सरस्वत्यानुरागतः । एते यान्ति बुषा: स्वैरमनुत्वरण परिच्छदाः ॥५७॥ ( युगलम् )
रक्षन्तः
श्रनेकसमरोपाप्त विजयैकयशोधनाः । परेभ्योऽतिमहद्भूयोऽपि शरणागतान् ।। ५८ ।। माद्दन्तिघटाटोप विपाटनपटीयसा । विक्रमेण विराजन्ते वीराः सिंहा इवापरे ॥ ५६ ॥ ( युग्मम् )
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उपहार में चढ़ाये हुए समस्त शिरषि पुष्पों के समूह को पाकर हंसी शेवाल की शङ्का से मुँह खोल रही है || ४६ ॥ नानाप्रकार के मनुष्यों से सुशोभित यह राजकुल का द्वार ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों देखने के लिये किसी के द्वारा इकट्ठा किया हुआ त्रैलोक्य - तीनलोकों का समूह ही हो ॥ ५० ॥ बाह्य भूमि में स्थित यह राजाओं का समूह दिव्यवन - सुन्दर वन के समान जान पड़ता है क्योंकि जिसप्रकार दिव्यवन नाना पत्रों - रङ्गविरङ्ग पत्तों से सहित होता है उसीप्रकार राजाओं का समूह भी नानापत्रों - हाथी घोड़ा आदि अनेक वाहनों से सहित है और दिव्यवन जिसप्रकार देदीप्यमान रत्नों के प्राभूषणों से सुशोभित होता है उसीप्रकार राजाओं का समूह भी उनसे सुशोभित है || ११ || रुनझुन शब्द करने वाली मेखला और नूपुरों से सहित ये वाराङ्गनाएं जहां तहां ऐसी घूम रही हैं मानों कामदेव की प्रत्यत्वा के शब्द से ही सहित हों ।। ५२ ।। अत्यधिक प्रियवचन बोलता हुआ भी यह प्रवेश करने का इच्छुक जन द्वारपालों के द्वारा रोक दिया गया है अतः कुछ पश्चाताप करके वापिस लौट रहा है ||५३ || ये राजा के प्रिय हाथी, अन्तर्गत मद के कारण नेत्र युगल को कुछ कुछ बन्द कर निःशङ्करूप से प्रवेश कर रहे हैं ।। ५४|| जो समस्त जगत् को धोखा देते हैं तथा प्रच्छन्नरूप से अन्याय करते हैं ऐसे ये अर्थाधिकारी पिशाचों के समान गुप्तरूपसे भीतर प्रवेश कर रहे हैं ।। ५५ ।। पीछे पीछे चलने वाले शिष्यों के साथ जो शास्त्र की चर्चा कर रहे हैं, जो आत्मज्ञान से भोगों को तृण भी नहीं समझते हैं, जो सरस्वती के द्वारा अनुरागवश सदा सर्वाङ्ग से आलिङ्गित रहते हैं तथा शिष्ट परिकर अथवा वेषभूषा से सहित हैं ऐसे ये विद्वान् स्वतन्त्रता पूर्वक चल रहे हैं ॥५६-५७।। अनेक युद्धों में प्राप्त विजय से उत्पन्न एक यश ही जिनका धन है तथा जो बड़े बड़े शत्रुत्रों से भी
१ अनेकपर्णसहितं नानावाहनसहितञ्च २ प्रवेशेच्छुकजनः ।
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