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________________ तृतीय सर्ग। परसन्मानमात्रेण स्वप्रारणव्ययकारिणः । दीनानाथविपन्नानामापत्स्वत्यन्तवत्सलाः ॥६०॥ एते वीरा विशन्त्यन्तः केचिनियन्ति च प्रभोः । तुष्टा: सुदुर्लभाहूत्या सजा च करदत्तया ॥६१॥ (युग्मम् ) बद्धमुक्ताश्चिरायते पुनः स्वपदवाञ्छया । राजन्याः ख्यातसौजन्या द्वारमूलमुपासते ॥६२।। अनेकदेशजा जात्या' विनीता लक्षणान्विताः । एते सुतेजसो भान्ति हया राजसुतैः समम् ॥६३।। यामन्यवस्थितानेकमाद्यद्दन्तिशताकुला । द्यौरिवाभाति कक्षेयं कीर्णानेकघनाघनैः ।।६४॥ वन्दिमिः स्तूयमानाङ्का वरशौण्डीर्यशालिन: । नियूं ढानेकसंग्रामभूरिभाराजित श्रियः ॥६५।। विधृतः सर्वतश्छत्रैः स्वयशोभिरिवामलैः । एतेऽवसरमुद्वीक्ष्य खेचरेन्द्रा बहिःस्थिताः ।।६६।। (युग्मम् ) अनेकपशताकोणं दुर्ग वेत्रलताधरैः । विक्रान्तविक्रमैयुक्तं हरिभिश्चारुकेशरैः ।।६७ । क्वचिन्मृगमदोद्दामगन्धाकृष्टालिसंकुलम् । एतद्वनमिवाभाति "सुविप्रवरसेवितम् ।।६८।। (युग्मम् ) शरणागत लोगों की रक्षा करते हैं ऐसे अन्य वीर सिंहों के समान मदोन्मत्त गजघटा- हस्ति समूह के विदारण करने में समर्थ पराक्रम से सुशोभित हो रहे हैं ।।५८-५६।। जो दूसरों से प्राप्त सन्मान मात्र के द्वारा अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं, जो दीन अनाथ तथा विपत्तिग्रस्त लोगों पर आपत्तियों के समय अत्यन्त स्नेह प्रदर्शित करते हैं तथा जो राजा के अत्यन्त दुर्लभ आह्वान और अपने हाथ से दी हुई माला से सतुष्ट हैं ऐसे ये कितने ही वीर भीतर प्रवेश कर रहे हैं और बाहर निकल रहे हैं ॥६०-६१।। जो चिरकाल तक बन्धन में रखने के बाद छोड़े गये हैं तथा जिनकी सज्जनता प्रख्यात है ऐसे राजा लोग फिर से अपना पद पाने की इच्छा से राजद्वार की उपासना कर रहे हैं ॥६२।। जो अनेक देशों में उत्पन्न हैं, कुलीन हैं, विनीत हैं, अच्छे लक्षणों से सहित हैं और उत्तम तेज से युक्त हैं ऐसे ये घोड़े राजकुमारों के समान . सुशोभित हो रहे हैं ।। ६३।। पहरे पर खड़े हुए अनेक मदोन्मत्त हाथियों से भरी हुई यह कक्षा अनेक मेघों से व्याप्त आकाश के समान सुशोभित हो रही है ।। ६४।। वन्दीजन जिनके नाम की स्तुति कर रहे हैं, जो उत्कृष्ट शौर्य से सुशोभित हैं, जिन्होंने जीते हुए अनेक संग्रामों में बहुत भारी लक्ष्मी प्राप्त की है तथा जो सब ओर धारण किये हुए अपने यश के समान निर्मल छत्रों से युक्त हैं ऐसे ये विद्याधर राजा अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बाहर खड़े हैं । ६५-६६।। यह राजद्वार कहीं पर वन के समान सुशोभित हो रहा है क्योंकि जिसप्रकार वन अनेक पशताकीर्ण सैंकड़ों हाथियों से व्याप्त होता है उसीप्रकार राजद्वार भी पहरे पर खड़े हए सैंकड़ों हाथियों से व्याप्त है । जिसप्रकार वन वेत्रलताओं से सहित धर-पर्वतों से दुर्ग-दुर्गम्य होता है. उसी प्रकार राज द्वार भी वेत्रलता-छड़ियों को धारण करने वाले द्वारपालों से दुर्गम्य है । जिसप्रकार वन १ कुलीनाः २ योग्यलक्षण सहिताः ३ शोभनतेजोयुक्ताः ४ अश्वः सिंहैश्च ५ शोभना ये विप्रवरा ब्राह्मण श्रेष्ठास्तैः सेवितं, पक्षे सुविषु शोभनपक्षिषु प्रवराः श्रेष्ठास्तै: सेवितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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