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________________ २३ तृनीय सर्ग: समृद्ध नगरं नान्यदिदमेव महत्पुरम् । इतीव घोषयत्युच्चैर्यत्संगीतकनि.स्वनः ॥३६।। यत्रोपहारपमानि बदनान्येव योषिताम् । भवन्ति संचरन्तीनां स्वबिम्बमरिणभूमिषु ॥४०॥ यत्र रात्रौ विराजन्ते स्फटिकाजिरभूमयः । चलत्पुष्पैरिवाकीर्णाः प्रतिमायाततारकाः ॥४१।। स दूतस्तत्पुरं वीक्ष्य पिप्रिये प्रोतमानसः । जननी जन्मभूमि च प्राप्य को न सुखायते ॥४२॥ इत्युवाच ततो वाचं ते पुरालोकनोत्सुके । गायिके स्वेगितज्ञत्वममितः ख्यापयन्निव ॥४३।। समस्तसंपदां धाम पुरमेतद्विराजते । 'अनूनविबुधाकोणमैन्द्रं पुरमिवापरम् ॥४४॥ सदैव दक्षिणश्रेण्या स्थितमप्यमितात्मना। प्रतापेनोत्तरश्रेणीमाक्रम्यतत्प्रवर्तते ॥४५।। प्रासाद शिखराण्येते न मुञ्चन्ति पयोमुचः । धादित्सयेव तद्वनविटङ्कन्द्रायुधश्रियम् ॥४६॥ प्रासादतलसंविष्टो विभात्येष जनीजन: । स्वालङ्कारप्रभामग्नो उमध्येहदमिव स्थितः ॥४७॥ अधिष्ठितैर्जनैः सम्यकपर्याप्ताशेषवस्तुभिः । अत्रापणाः प्रसार्यन्ते विनोदाथं वरिणग्जनैः ॥४८॥ महलों के अग्रभाग तक घूमते रहते हैं जिससे ऐसे जान पड़ते हैं मानों उसकी रत्नमयी दीवालों में प्रतिबिम्बित अपने स्वरूप को देखने के लिये ही घूमते रहते हों ॥३८।। जिस नगर के संगीत का शब्द मानों उच्चस्वर से यही घोषणा करता रहता है कि बहुत बड़ा समृद्ध-संपत्तिशाली नगर यही है दूसरा नहीं ॥३६।। जहां मणिमयभूमियों पर चलने वाली स्त्रियों के मुख ही अपने प्रतिबिम्बों से उपहार के कमल होते हैं ।।४०॥ जहां रात्रि में ताराओं के प्रतिबिम्ब से युक्त स्फटिक के प्रांगनों की भूमियां ऐसी सुशोभित होती हैं मानों चलते फिरते पूलों से ही व्याप्त हो रही हों ॥४१॥ प्रसन्नचित्त का धारक वह दूत उस नगर को देख कर प्रसन्न हो गया सो ठीक ही है क्योंकि जननी और जन्मभूमिको देख कर कौन सुखी नहीं होता? ॥४२।। तदनन्तर नगर को देखने के लिये उत्कण्ठित गायिकानों से अमित ने इस प्रकार के वचन कह। मानो वह यह कह रहा था कि हम अभिप्राय-हृदय की चेष्टा को जानने वाले हैं ॥४३।। यह नगर इन्द्र के दूसरे नगर के समान सुशोभित हो रहा है क्योंकि जिसप्रकार इन्द्र का नगर समस्तसम्पदामों का स्थान है उसीप्रकार यह नगर भी समस्त संपदाओं का स्थान है और जिसप्रकार इन्द्र का नगर अनूनविबुधाकीर्ण-बड़े बड़े देवों से व्याप्त है उसीप्रकार यह नगर भी बड़े बड़े विद्वानों से व्याप्त है ॥४४॥ यह नगर दक्षिण श्रेणी में स्थित होकर भी निरन्तर अपने अपरिमित प्रताप से उत्तर श्रेणी को आक्रान्त कर प्रवर्त रहा है 1॥४५।। उस नगर की हीरानिर्मित कपोत पालियों के इन्द्रधनुषों की शोभा को ग्रहण करने की इच्छा से ही मानों ये मेघ महलों के शिखरों को नहीं छोड़ते हैं ॥४६॥ महलों की छतों पर बैठा तथा अपने आभूषणों की प्रभा में डूबा यह स्त्रियों का समूह ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों तालाब के बीच में ही स्थित हो ॥४७॥ निवासी जनों के द्वारा जिनकी समस्त वस्तुए अच्छी तरह खरीद ली जाती हैं ऐसे व्यापारी मनुष्यों के द्वारा विनोद के लिये यहां दूकानें फैलायी जाती हैं-बढ़ायी जाती हैं ।।४।। १ महाविद्वद्भिर्व्याप्तं पक्षे महादेवैयाप्तं २ गृहौतुमिच्छया ३ ह्रदस्य मध्ये इति मध्येह्रदम् अव्ययीभावसमास:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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