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श्रीशान्तिनाथपुराणम् गीताद्गीतान्तरं श्रोतु किन्नराणामितस्ततः । यस्मिन्मृगगणो भ्राम्यन्दिवा नात्तिःतृणांकुरान् ॥८॥ मुनयो यद्गुहावासा धर्म शासति खेचरान्। अन्तस्तत्त्वावबोधेन विकसद्वदनाम्बुजान् ।।६॥ पद्मरागरुचां 'चक्राद्यत्र दावामिशङ्कया। बिभेति दन्तिनां मूथं तिर्यञ्चो हि जडाशयाः ॥१०॥ संकेतकलता गेहं यत्रत्य खचरी पुरा। अनायाति प्रिये किञ्चिदुद्गायोद्गाय ताम्यति ॥११॥ मृगेन्द्रः स्वं पुरो रूपमालोक्य स्फटिकाश्मनि । क्रुद्धः प्रार्थयते यत्र स्वशौर्यैकर सोऽधिकम् ॥१२॥ मेघाः 'सानुचरा यस्मिन् विचित्राकारधारिणः । विशदा निर्जलस्थित्या राजन्ते खेचरैः समम् ॥१३॥ क्वचिन्मुक्तामयो' यश्च विविधौषधिसंयुतः। अनेकशतकूटोऽपि राजतेऽविकृतस्थितिः ॥१४॥ यस्मिन्नैकारणवातैरिन्द्रायुधपरम्परा । अंशुभिः स्तार्यते व्योम्नि निरभ्रेऽपि निरन्तरम् ॥१५।। यस्मिन्मरकतच्छायाविभिन्ना स्फटिकोपलाः । अन्तःशवलतोयानां सरसां बिभ्रतिश्रियम् ॥१६॥
आसन जमाये हुए थे ऐसा वह पर्वत दूसरे चक्रवर्ती के समान सुशोभित हो रहा था। भावार्थ-जिसप्रकार चक्रवर्ती चमरों से वीजित तथा बडे सिंहासन से युक्त होता है उसीप्रकार विजयार्ध पर्वत भी चमरीमृगके सुन्दर बालों से वीजित था तथा महासिंहों-बड़े बड़े सिंहों के आसन से सहित था ।।७।। जिसमें किन्नरों के एक गीत से दूसरा गीत सुनने के लिये यहां वहां घूमता हुआ मृग समूह दिन में तृण के अंकुरों को नहीं खाता था । जिसकी गुहात्रों में निवास करने वाले मुनिराज, अन्तस्तत्त्वशुद्ध प्रात्म तत्त्व के ज्ञान से जिनके मुखकमल विकसित हो रहे थे ऐसे विद्याधरों को धर्म का उपदेश देते हैं ॥६।। जहां पद्मराग. मणियों की कान्ति के समूह से दावानल की प्राशङ्का से हाथियों का समूह भयभीत रहता है सो ठीक ही है क्योंकि तिर्यञ्च अज्ञानी होते ही हैं ।।१०।। जहां सकेत के लता गृह में विद्याधरी पहले आकर प्रेमी के न आने पर कुछ उच्च स्वर से गा गा कर बेचैन होती है ॥११।। जहां अपनी शूरता के रस से युक्त सिंह, आगे स्फटिकमणि में अपना रूप देख कर अधिक क्रुद्ध होता हुआ सामने जाता है ।।१२।। जिस पर्वत की शिखरों पर विचरने वाले विचित्र आकार के धारक तथा जल के अभाव से सफेद मेघ विद्याधरों के समान सुशोभित होते हैं क्योंकि मेघों के समान विद्याधर भी सानुचर थे-अनुचरों से सहित थे, विचित्र आकार के धारक थे और निर्जऽस्थिति-अज्ञान रहित स्थिति के कारण विशद - हृदय से स्वच्छ थे ।।१३।। जो पर्वत विविध औषधियों से युक्त था इसीलिये मानों मृक्तामय-नीरोग था ( पक्ष में मोतियों से तन्मय था और अनेकशत कूट-सैकड़ों कपटों से युक्त होने पर भी विकृत स्थिति-विकार रहित स्थिति से सहित था ( परिहार पक्ष में सैकड़ों शिखरों से युक्त होने पर भी उसकी स्थिति में कभी कोई विकार नहीं होता था अर्थात् प्रलय
आदि के न पड़ने से उसकी स्थिति सदा एक सदृश रहती थी ) ॥१४॥ जिस पर्वत पर अनेक मणियों के समूह किरणों के द्वारा मेघ रहित आकाश में भी निरन्तर इन्द्रधनुषों की परम्परा को विस्तृत करते रहते हैं ।।१५।। जिस पर्वत पर मरकतमरिणयों की कान्ति से मिश्रित स्फटिकमरिण, जिनके भीतर शेवाल से युक्त जल भरा हुआ है ऐसे सरोवरों को शोभा को धारण करते हैं ।। १६॥
१ समुहात् २ लतागृहम् ३ अनागच्छति सति ४ दुःखीभवति ५ सम्मुखं गच्छति ६ शिखरचराः अनुचर:सहिताश्च ७ मौक्तिकमयो नीरोगश्च ८ कूट:-कपट: शिखरञ्च राजत्यविकृतस्थिति : ब० ।
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