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तृतीय सर्ग:
२७ तमालोक्या मितो' वाचमभ्यधत्तेति कौतुकात् । राजताद्रिमिमं दिव्यं पश्यतामिति गायिके ॥१७॥ भानौ उसमुद्यति प्रातरत्र स्फटिकमित्तयः । सिन्दूरिता इवाभान्ति संक्रान्ताभिनवांशवः ॥१८॥ इदं रम्यमिदं रम्यमिति पश्यद्वनान्तरम् । यस्मिन्नमःसदां युग्मं रन्तु क्यापि न तिष्ठति ॥१६॥ एतौ पल्लविताशोकलतावलयमध्यगौ । राजतोऽन्तनिविष्टौ वा स्वानुरागस्य दम्पती ॥२०॥ केकिकेकारवत्रासाद् द्विजिहरपजितः । अयं मार्गस्थितो भाति सरलश्चन्दनद्रुमः ॥२१॥ तमालकाननैरेष प्रतिकुजं विराजते । प्रत्युद्गतैरिव ध्वान्तै रोद्ध मंशुमतः प्रभाम् ॥२२॥ सौवर्णैः कटकैरेष क्रीडाभ्राम्यत्सुरासुरैः। क्वचित्सौमेरवी' शोभा बिभ्राण इव भासते ॥२३।। खेचरी: परितो वाति धुन्वन्नलकवल्लरीः । एष तद्वदनामोदमादित्सुरिव मारुतः ॥२४॥ उत्तरीयैकदेशेन पिघाय स्तनमण्डलम् । द्योतमाना स्फुरत्कान्तिशोणदन्तच्छदत्विषा ।।२।। निर्गच्छन्ती लतागेहाच्चकास्ति ‘स्रस्तमूर्धजा । इयं काचिद्रतान्तेऽस्मात् स्वेदबिन्दुचितानना ॥२६॥
[ युग्मम् ]
एतदन्तर्वणं
भाति सरः कनकपङ्कजः । मज्जद्विद्याधरीपीनस्तमक्षोभक्षमोदकम् ॥२७॥
उस पर्वत को देख कर अमित विद्याधर ने कौतुक से इस प्रकार के वचन कहे । अहो गायिकानों ! इस सुन्दर विजयार्घ पर्वत को देखो ।।१७।। प्रातःकाल सूर्योदय होने पर यहां स्फटिक की दीवालों पर जब नवीन किरणें पड़ती हैं तब वे सिन्दूर से पुती हुई के समान सुशोभित होती हैं ।।१८।। यह सुन्दर है, यह सुन्दर है इस तरह दूसरे दूसरे वन को देखता हुआ विद्याधरों का युगल जिस पर्वत पर कहीं भी क्रीड़ा के लिये ठहरता नहीं है ।।१६।। पल्लवित अशोक लता गृह के बीच में स्थित ये दम्पती ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों अपने अनुराग के भीतर ही बैठे हों ।।२०।। मयूरों की केकाध्वनि के भय से जिसे सर्पो ने छोड़ दिया है ऐसा यह मार्ग में स्थित सीधा चन्दन का वृक्ष सुशोभित हो रहा है ।।२१।। जो सूर्य की प्रभा को रोकने के लिये ऊपर उठे हुए अन्धकार के समान जान पड़ते हैं ऐसे तमाल वृक्ष के वनों से यह पर्वत प्रत्येक लतागृहों में सुशोभित हो रहा है ।।२२।। जिन पर क्रीड़ा के लिये सुर और असुर घूम रहे हैं ऐसे सुवर्णमय कटकों से यह पर्वत कहीं पर सुमेरु पर्वत की शोभा को धारण करता हुआ सा सुशोभित हो रहा है ।।२३।। विद्याधरियों के चारों ओर उनकी केशरूप लतानों को कम्पित हुई यह वायु ऐसी बह रही है मानों उनके मुखों की सुगन्धि को ही ग्रहण करना चाहता है ॥२४॥ जो उत्तरीय वस्त्र के अञ्चल से स्तनमण्डल को प्राच्छादित कर रही है, पोठों की लाल लाल कान्ति से शोभायमान है, जिसके केश बिखरे हुए हैं तथा जिसका मुख पसीने की बूदों से व्याप्त है ऐसी यह कोई स्त्री संभोग के बाद लतागृह से बाहर निकलती हुई सुशोभित हो रही है ।।२५-२६।। जिसका जल गोता लगाने वाली विद्याधरियों के स्थूलस्तनों का क्षोभ सहन
१ चक्रवर्तिदूत: २ विजयाईगिरिम् पश्येतामिति ब० ३ समुद्गच्छति मति ४ सः प्रत्युद्यात ब. ५ सूर्यस्य ६ सुमेरुसम्बन्धिनीम् ७ चूर्ण कुन्तललता: ८ शिथिलित केशा।
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