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________________ २२ श्रीशांतिनाथपुराणम् प्रदृष्टेऽपि जने प्रोति यो व्यवत्तेदृशी पराम् । प्रतिजन्यमिदं लोके सौजन्यं तस्य दृश्यते ।।७७।। गुरिणभिस्त्वद्विधस्तस्य गुणवत्तानुमीयते । रत्न रत्नाकरस्येव रत्नवत्ता निरन्तरा ॥७॥ तीणोभास्वाखडश्चन्द्रः' स्तब्धः कल्पतरुः परम् । तेजःप्रशमदानस्ते जितास्तेनेति का कथा ॥७६ ।। स परं भूतिसङ्गन प्रसन्नो विमलोऽभवत् । पारुष्यहेतुनाप्युच्चैः सुवृत्तोऽब्द इव स्वयम् ।।१०।। अस्मद्भूपतिवंशस्य सम्बन्धतत्कुलस्य च । यः पुरोभूत्सचाद्यापिवृद्धः किं नावसीयते ॥१॥ कुलद्वयेन साहाय्यमन्योऽन्यापदि यत्कृतम् । स्मरन्ति च तदद्यापि तत्कथासु वयोऽधिकाः ।।८२॥ विच्छिन्नोऽपि स संबन्धस्त्वया भूयो विधीयताम् । प्रदायानन्तवीर्याय सुतां कामपि चक्रिरणः ।।८३।। पक्रेरणासाधितं किञ्चिदेताभ्यां तच्च सेत्स्यति । त्वद्भत्तुं : कृच्छ संसिद्धच किं नेतावपरौ भुनौ ।।८।। चिन्तनीयौ त्वयाप्येतौ प्रीतिस्तारितचेतसा । त्वदायत्तमिदं कार्यमित्युक्त्वा जोषमास्त सः॥८५।। ततो बहुश्रुतेनोक्तां गम्भीरा( स मारतीम् । निशम्य संप्रधान्तिः किनिदित्थमवोचत ॥८६॥ मयाप्येतत्पुरा कार्य सम्प्रधार्ग धिया स्थितम् । त्वत्सम्बन्धप्रियत्वाच्च स्वामिनो गुणशालिनः ।.८७।। द्वारा उनकी गुणवत्ता का अनुमान होता है ।।७८॥ सूर्य तीक्ष्ण-अत्यन्त गर्म है, चन्द्रमा जड़ हैअत्यन्त ठण्डा है और कल्पवृक्ष स्तब्ध है-अहंकार से खड़ा है इसलिये राजा दमितारि ने उन्हें अपने तेज, शान्ति और दान के द्वारा जीत लिया है इसका क्या कहना है ? ॥७६।। भूति -भस्म का संयोग यद्यपि रूक्षता का कारण है तथापि उसके द्वारा सुवृत्त-गोल दर्पण जिसप्रकार स्वयं अत्यन्त प्रसन्न -स्वच्छ और निर्मल हो जाता है उसीप्रकार भूति-सम्पत्ति का संयोग यद्यपि रूक्षता-व्यवहार सम्बन्धी कठोरता का कारण है तथापि उसके संयोग से सुवृत्त-सदाचारी राजा दमितारि स्वयं प्रसन्न-प्रसाद गुण से सहित और निर्मल हो गया है ।।१०।। हमारे राज वंश और दमितारि के वंश का जो सम्बन्ध पहले हुआ था उसे आज भी क्या वृद्धजन नहीं जानते हैं ? ||८॥ परस्पर की आपत्ति के समय दोनों कुलों ने जो कार्य किया था उसे दोनों कुलों की चर्चा उठने पर वृद्ध जन भाज भी स्मरण करते हैं ।।८२॥ यद्यपि वह सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया है तो भी अनन्त वीर्य के लिये चक्रवर्ती की कोई कन्या देकर आप उसे फिर से स्थापित कर सकते हैं ।।८३॥ चक्र से जो कार्य सिद्ध नहीं हुआ है वह इन दोनों भाईयों से सिद्ध होगा। कष्ट के निराकरण के लिये ये दोनों क्या आपके स्वामी की दूसरी भुजाएं नहीं हैं ? ॥४॥ प्रीतिसे जिसका चित्त विस्तृत हो रहा है ऐसे आपको भी इन दोनों का ध्यान रखना चाहिये । यह कार्य आपके अधीन है । इतना कह कर बहुश्र त मंत्री चुप हो गया ।।८।। __तदनन्तर बहुश्रु त मन्त्री के द्वारा कही हुई गम्भीर अर्थ से युक्त उस वाणी को सुनकर दूत ने हृदय में कुछ विचार किया। पश्चात् इस प्रकार कहने लगा ॥८६।। गुणों से सुशोभित स्वामी का आपके साथ सम्बन्ध हो यह मुझे प्रिय है इसलिये मैंने भी पहले बुद्धि द्वारा निर्धार कर इस कार्य । दर्पण इव ३ वृद्धजनाः सम्रधार्य ब० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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