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________________ प्रथम सर्गः २३ प्रयासो हि परार्थोऽयं महतामेव केवलम् । सारभूतान्किमर्थं + वा मणीन्धत्ते पयोनिधिः ॥८॥ गुणवान् 'प्राकृतश्चान्यः प्राणानामपि चक्रिणः । अर्थो २वंशयितेत्येषा किम्बदन्ती न किं श्रुता ॥८६॥ कस्मै देयं प्रदाता कः कः परो दापयिष्यति । एताभ्यां स्वगुणैरैक्यं नीते चक्रिरिण का भिदा ।।६०॥ अन्यार्थमागतस्यात्र उदित्योरपि न युज्यते । ममास्मै तत्सुतां दातु दास्ये गत्वा तदन्तिकम् ॥११॥ मय्यारोपितभारत्वान्मत्कृतं बहु मन्यते । अयुक्तमपि यत्किञ्चित्कि पुनर्युक्तमीदृशम् ॥१२॥ इति सम्बन्धजां वारणों व्याहृत्योपशशाम सः । अमितोऽहमिति स्वाख्यामाख्यत्पृष्टश्च भूभुजा ।।३।। परकार्य समाधाय स्वार्थसिद्धि प्रजल्पतः । तस्य वाग्मितया संसत्प्रपेदे विस्मयं परम् ॥१४॥ तस्य संगीतकादीनि दर्शयित्वा ततः प्रभुः । त्वमावासी भवेत्युक्त्वा यथाकालं व्यसर्जयत् ॥६॥ अर्थकदा यथामन्त्रममितस्य बहुश्रुतः । मन्त्री समर्पयामास गायिके ते तथाभिधे ।।१६।। ब्रू ते स्मेति ततो वाक्यं तत्प्रक्रमनिवेदकम् । एते सदैवते सम्यग् वृषस्यारहिते शुची' ॥१७॥ का निश्चय किया है ।।७।। बड़े पुरुषों का यह प्रयास केवल पर का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये ही होता है । ठीक ही है समुद्र श्रेष्ठ मणियों को किसलिये धारण करता है ? भावार्थ-जिस प्रकार समुद्र दूसरों के उपयोग के लिये ही श्रेष्ठ रत्नों को धारण करता है उसी प्रकार चक्रवर्ती दमितारि भी कन्या प्रादि श्रेष्ठ रत्नों को दूसरों के उपयोग के लिये ही धारण करता है ।।८८।। अन्य मनुष्य गुणवान हो चाहे साधारण । यदि वह प्राणों की भी इच्छा करता है तो भी चक्रवर्ती के लिये कुटम्बी जन के समान होता है यह किंवदन्ती क्या आपने सुनी नहीं? ॥८६॥ ये दोनों भाई अपने गुणों के द्वारा जब चक्रवर्ती को एकत्व प्राप्त करा देते हैं तब किसके लिये देने योग्य है ? देने वाला कौन है ? और दूसरा कौन दिलावेगा इसका भेद ही कहां उठता है ? ।।१०।। मैं अन्य कार्य के लिये यहा आया हूँ इसलिये देने के लिये इच्छुक होने पर भी मेरा इसे चक्रवर्ती की पुत्री देना योग्य नहीं जान पड़ता। हां, मैं उनके पास जाकर दूंगा ।।११।। मेरे ऊपर उन्होंने भार रख छोड़ा है इसलिये मेरे द्वारा किये हुए जिस किसी अयोग्य कार्य को भी वे बहुत मानते हैं फिर ऐसे योग्य कार्य का तो कहना ही क्या है ? ॥१२॥ इस प्रकार सम्बन्ध से उत्पन्न वाणी को कह कर वह शान्त हो गया। राजा अपराजित द्वारा पूछे जाने पर उसने 'मैं अमित हूँ' इसप्रकार अपना नाम बताया ।।६३|| पर का कार्य सिद्ध कर र्थसिद्धि की बात करने वाले उस दूत की वक्तत्वकला से सभा अत्यधिक आश्चर्य को प्राप्त हई ॥१४॥ तदनन्तर राजा अपराजित ने उसे संगीत आदि दिखला कर कहा कि आप विश्राम कीजिये ; यह कह कर यथा समय विदा किया ॥६॥ अथानन्तर एक समय बहुश्रुत मन्त्रीने मन्त्रणा के अनुसार अमित नामक दूतके लिये पूर्वकथित नामवाली दोनों गायिकाए सौंप दी ।।६६॥ सौंपने के बाद उस प्रकरण को सूचित करने वाले यह वचन कहे कि ये गायिकाए अच्छी तरह देवता से सहित हैं, कामेच्छा से रहित हैं और पवित्र हैं इसलिये परम आदर पूर्वक प्रयत्न से अनुग्राह्य हैं -रखने योग्य हैं । ये निरन्तर एकान्त में रहना पसन्द करती हैं तथा अन्य राजाओं को नमस्कार नहीं करती हैं ॥६७-६८।। राजा अपराजित ने इसी विधि ___ + किमर्थो वा ब० १ साधारणो जन: २ कुटुम्बी इव आचरिता, ३ दातुमिच्छोरपि ४ दास्यामि ५ मथुनेच्छारहिते ६ पवित्रे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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