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द्वितीय सर्ग।
२१ निःशङ्कमियमादेयं भवता कारि मा प्रभोः । प्रीतिभङ्ग इति प्रोच्य तस्योद्धृत्य+तदार्पयत् ।।६७।। तदाभरणमालोक्य जगत्सारं विसिस्मिये। अवेत्य स भुवोभर्तु रौदार्यं च 'जनातिगम् ।।६८।। न तदेवाकरोत्कण्ठे मुदितः स विभूषणम् । चित्ते तद्गुरणसंतानं स्वेऽनय॑मपि तत्क्षणम् ॥१६॥ स तेनैव समं गत्वा कोषाध्यक्षेण भूपतिम् । मूर्ना दूरान्नतेनार्चीत प्रसादातिभरादिव ।।७।। निदिदेशासनं तस्य स्वकरेण महीपतिः । तस्मिन् प्रसाद इत्युक्त्वा निविष्टः क्षरणमब्रवीत् ॥७१।। इयती सत्क्रियां दूते प्रापयेत् क इव प्रभुः । प्रक्षोभस्त्वत्समः को वा दानशूरो नराधिपः ।।७२।। प्राविःकृता त्वया प्रीतिर्दमितारौ दिशानया । तत्कलत्रस्य वाल्लभ्यां पिता स्निह्यति यत्सुते ।।७३।। अपृष्टव्यमिदं सिद्ध ममागमनकारणन् । कस्मिन्नहनि मे यानमेतावदभिधीयताम् ।।७४।। इत्युक्त्वा विरते दूते ततोऽवोचद् बहुश्रुतः । वचनं सामगम्भीरमभिन्ननयविस्तरम् ।।७।। रत्नं प्रदाय सारं यदादित्सोरत्यसारकम् । प्रयुक्तकारिता केयं त्वद्विमोनयशालिनः ॥७६।।
ग्रहण कीजिये, प्रभु का प्रीतिभङ्ग मत करिये ऐसा कह कर वह हार निकाल कर दूतके लिये समर्पित कर दिया ।।६७।। संसार के सारभूत उस प्राभूषण को देखकर तथा राजा की लोकोत्तर उदारता का विचार कर दूत आश्चर्य करने लगा ॥६॥ उसने प्रसन्न होकर तत्काल उस आभूषण को ही कण्ठ में धारण नहीं किया किन्तु राजा के अमूल्य गुरंग समूह को भी अपने चित्त में धारण किया ॥६६।। उसने उसी समय कोषाध्यक्ष के साथ जाकर प्रसन्नता के बहुत भारी भार से ही मानों दूर से झुके हुए मस्तक से राजा की पूजा की । भावार्थ-शिर झुकाकर राजा को नमस्कार किया। ७०॥ . . राजा ने उसे अपने हाथ से आसन का निर्देश किया। यह प्रापका प्रसाद है' यह कर वह प्रासन पर बैठा और क्षणभर विश्राम कर कहने लगा ॥७१।। ऐसा कौन राजा है जो दूत को इतना सत्कार प्राप्त कराये । आपके समान क्षोभरहित तथा दानशूर राजा कौन है ? अर्थात् कोई ७२| आपने इस रीति से दमितारि पर प्रीति प्रकट की है क्योंकि पिता स्त्रीके पुत्र पर जो स्नेह करता है वह स्त्री का ही प्रेम है। भावार्थ-जिस प्रकार पिता स्त्री के स्नेह के कारण उसके पुत्र पर स्नेह करता है उसीप्रकार दमितारि के स्नेह से ही आपने उसके दूत पर स्नेह प्रकट किया है ।।७३।। मेरे आने का यह कारण जो पूछने के योग्य नहीं था, बिना पूछे ही सिद्ध हो गया। अब इतना ही कहा जाय कि मेरा जाना किस दिन होगा ? ||७४॥ इतना कह कर जब दूत चुप हो गया तब बहुश्रुत नामका मन्त्री समि-शान्ति से गम्भीर तथा नीति के विस्तार से युक्त वचन कहने लगा ॥७॥
सारभूत रत्न देकर जो सारहीन वस्तु को ग्रहण करना चाहते हैं ऐसे आपके नीतिज्ञ राजा की यह कौनसी अयुक्तकारिता है ? भावार्थ-अापके राजा तो बड़े नीतिज्ञ हैं फिर वे सारहीन गायिकाओं को लेकर अपनी श्रेष्ठ पुत्री को क्यों देना चाहते हैं ? ॥७६।। जो अदृष्ट जन पर भी ऐसी उत्कृष्ट प्रीति करते हैं यह उनकी लोकोत्तर सज्जनता ही दिखायी देती है । ७७।। जिसप्रकार रत्नों के द्वारा समुद्र की निर्वाध रत्नवत्ता का अनुमान होता है उसीप्रकार आप जैसे गुरणी मनुष्यों के
+ तदर्पयत् ब. १ लोकोत्तरम् ॐ निविश्य ब० २ प्रीतिः प्रियत्वं वा ३ आदातु मिच्छोः ।
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