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श्रीशान्तिनाथपुराणम् प्रज्ञोत्माहबलोद्योगधर्यशौर्यक्षमान्वितः । जयत्येकोऽप्यरीन्कृत्स्नान्कि पुनी सुसंगतौ ॥५६॥ इति गुप्तं तयोर्जाननिश्चिकाय बहुश्रुतः। प्रत्यक्षा हि परोक्षापि कार्यसिद्धिः सुमेधसाम् ॥५॥ ते सर्वे सचिवाः प्राज्ञाः सम्यक् तं प्रतिभागुणम् । प्रत्यर्थं तुष्टुवुस्तुष्टा गुरिणनो हि विमत्सराः ॥५८।। इति निर्णीतमन्त्रार्थांस्तान् संमान्य यथाक्रमम् । निर्गत्य मन्त्रशालायाः स सभाभवनं ययौ ॥५६॥ किश्चित्कालमिव स्थित्वा तत्रैकेन स पत्तिना' । तूर्णमाकारयामास कोषाध्यक्ष कुशाग्रधीः ॥६०॥ वेगेनैत्य ततो नत्वा को निदेश इति स्थितः। राजवाभ्यर्णमाहूतः प्रणम्योपससाद सः ॥६१।। कराम्यां संपिधायास्यं कुब्जीभूयोत्थितात्मनः । कर्णमूलेऽवदत्किञ्चित् तस्योपांशु महीपतिः ॥६२।। भर्तु राज्ञां प्रणामेन गृहीत्वा निरगात्ततः । यथादिष्ट क्रमेणव दूतावासं ययौ च सः ॥६३॥
विलेपनैर्दु कूलस्रक्ताम्बूलः संविभज्य तम् । किञ्चित्पटलिकान्तःस्थं पुरोधार्यवमभ्यधात् ॥६४॥ त्रिजगद्भूषणं नाम्ना कण्ठाभरणमुत्तमम् । एतद्राज्यक्रमायातं रत्नेष्वेकं सलक्षणम् ॥६५॥ भवदागमनस्यता क्तमेवेत्यवेत्य ते । चक्रवर्त्यनुरागाच्च प्रहितं पृथिवीभुजा ॥६६॥
शुद्ध है अथवा कुटिल है ।।५५।। प्रज्ञा, उत्साह, बल, उद्योग, धैर्य, शौर्य और क्षमा से सहित एक ही पुरुष बहुत शत्रुओं को जीत लेता है फिर हम दो भाई मिल कर क्या नहीं जीत सकेंगे ? ॥५६।। इस प्रकार उन दोनों के गुप्त कार्य को जानते हुए बहुश्रु त मन्त्री ने निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषों को परोक्ष कार्य की सिद्धि भी प्रत्यक्ष प्रतिभासित होती है ॥५७॥ प्रतिभाशाली उन समस्त मन्त्रियों ने संतुष्ट होकर प्रतिभारूप गुण से युक्त उस बहुश्रुत मन्त्री की बहुत स्तुति कीप्रशंसा की सो ठीक ही है क्योंकि गुणी मनुष्य ईर्ष्या से रहित होते हैं ।।५८।। इस प्रकार मन्त्रार्थ का निर्णय करने वाले उन मन्त्रियों का क्रम से सन्मान कर राजा अपराजित मन्त्र शाला से निकल कर सभा भवन की ओर गया ॥५६।।
वहां कुछ काल तक ठहर कर तीक्ष्णबुद्धि राजा अपराजित ने एक सेवक के द्वारा शीघ्र कोषाध्यक्ष को बुलवाया ।।६०।। कोषाध्यक्ष शीघ्र ही आकर तथा नमस्कार कर क्या प्राज्ञा है ? यह कहता हुआ खड़ा हो गया। राजा ने उसे निकट बुलाया जिससे वह प्रणाम कर राजा के समीप पहुँच गया॥६१॥ दोनों हाथों से मुह बन्द कर जो झुका हुआ खड़ा था ऐसे कोषाध्यक्ष के कर्णमूल में राजा ने एकान्त में कुछ कहा ॥६२।। स्वामी की आज्ञा को प्रणामपूर्वक स्वीकृत कर वह वहां से निकला और बताये हुए कम से ही दूतावास पहुंचा ।।६३॥ विलेपन, रेशमीवस्त्र, माला तथा पान के द्वारा दूत का सत्कार कर उसने पिटारे के भीतर रखी हुई किसी वस्तु को सामने रख कर इस प्रकार कहा ।।६४।।
यह त्रिजगभूषण नामका उत्तम हार है। राजा अपराजित की राज्य परम्परा से चला आ रहा है रत्नों में अद्वितीय है तथा लक्षणों से सहित है । ६५।। आपके प्रागमन के अनुरूप यही है, यह समझकर तथा चक्रवर्ती के अनुराग से राजा ने आपके लिये भेजा है ।।६६।। इसे आप निःशङ्क
१ भटेन २ आह्वमति स्म ३ एकान्ते । * विलेपनद्कूलस्रक ब०
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