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________________ द्वितीय सर्ग: विद्यानां पारदृश्वाहं साधकश्च पुराभवे । अस्मिन्नपि भवे ताभिः स्वीकृतोऽस्म्यनुरागतः ॥४४॥ संगच्छन्ते' महाविद्याः सर्वाः पूर्वभवाजिताः । मम भ्रात्रा रुचः प्रातरःणेव प्रतापिना ॥४५ । ततो रूपं परावर्त्य गायिकारूपधारिणौ । द्रक्ष्यावः सह दूतेन गत्त्वावां खेचरेश्वरम् ।।४६।। प्रात्मविद्यानुभावेन तद्राज्यसकल स्थितिम् । विदित्वा वेदितव्यां तामायास्याव: पुनस्ततः ।।४७।। तत्रानिष्टमसाध्यं वा नैवाशङ्कचं महात्मभिः। भवद्भिरावयो राज्यं रक्षरणीयं च यत्नतः ।।४।। एवं मनोगतं कार्यमुदीर्य स विशांपतिः । व्यरंसोन्मन्त्रिणां ज्ञातु मतानि मतिसत्तमः ।।४६।। ताज्यस्य समस्तस्य कर्णधारो बहुश्रुत:२ । इत्युवाच वचो वाग्मी ततो नाम्ना बहुश्रुतः ॥५०॥ कार्य साम्प्रतमेवोक्त राज्ञा प्रज्ञावतां मतम् । इदमस्योत्तरं किञ्चिन्मयैवमभिधास्यते ॥५१।। दमितारेः प्रयात्वन्तं राजा भ्रातृपुरस्सरम् । हस्तेकृत्य ततो लक्ष्मी नियाजेनागमिष्यति ।।५२।। मयवेदं पुरा ज्ञातं देवज्ञात्तत्त्ववेदिनः । उन्मूलितार एताभ्यां समस्ताः खेचराषिपाः ॥५३॥ प्रदेयानन्तवीर्याय त्वया काचन तत्सुता । इति प्रार्यो निसृष्टार्थो भवद्धि। प्राप्तसक्रियः ॥५४।। प्रभिप्रायान्तरं तस्य विज्ञास्यामो वयं ततः। अन्तःशवोपविजिह्मो वा लक्ष्यते कार्यसन्निधौ॥५५॥ और साधक था। साथ ही इस भव में भी उन विद्यानों ने मुझे बड़े प्रेम से स्वीकृत किया है ।।४४॥ पूर्व भव में अजित समस्त महाविद्याएं हमारे भाई के साथ ऐसी मा मिली हैं जैसे प्रातःकाल प्रतापी सूर्य के साथ किरणें प्रा मिलती हैं ॥४५।। उन विद्याओं के प्रभाव से हम दोनों रूप बदल कर गायिकानों का रूप धारण करेंगे और दूत के साथ जाकर विद्याधरों के राजा दमितारि को देखेंगे ॥४६॥ अपनी विद्याओं के प्रभाव से उसकी समस्त राज्यस्थिति को जो जानने के योग्य है, जानकर वहां से वापिस आवेंगे ।।४७।। वहां हम लोगों का अनिष्ट होगा अथवा कोई कार्य प्रसाध्य होगा ऐसी पाशङ्का आप महानुभावों को नहीं करना चाहिये । आप लोग हमारे राज्य की यत्न पूर्वक रक्षा करें ॥४॥ अतिशय बुद्धिमान् राजा इसप्रकार अपने मन में स्थित कार्य को कह कर मन्त्रियों का अभिप्राय जानने के लिये विरत हो गया-चुप हो रहा ॥४६॥ तदनन्तर अपराजित के समस्त राज्य का कर्णधार, अनेक शास्त्रों का ज्ञाता तथा प्रशस्त वचन बोलने वाला बहुश्रु त नामका मन्त्री इस प्रकार के वचन कहने लगा । ५०।। राजा ने जो कार्य कहा है वह उचित ही है तथा बुद्धिमानों को इष्ट है। इसके प्रागे का कुछ कार्य मैं इस कहूँगा ॥५१॥ राजा अपराजित, भाई के साथ दमितारि के पास जावे । वहां जाने से वह उसकी लक्ष्मी को अपने अधीन कर किसी छल के बिना वापिस पावेगा ॥५२।। मैंने एक तत्त्वज्ञ ज्योतिषी से यह बात पहले ही जान ली थी कि इन दोनों भाईयों के द्वारा समस्त विद्याधर राजा उन्मूलित कर दिये जावेंगे-उखाड़ दिये जावेंगे ।।५३।। माप लोग दमितारि के दूत का सत्कार कर उससे ऐसा कहो कि तुम्हें अनन्तवीर्य के लिये दमितारि की कोई पुत्री देना चाहिये ॥५४॥ इससे हम उसके अभिप्राय के अन्तर-रहस्य को जान सकेंगे। क्योंकि कार्य के सन्निधान में ही देखा जाता है कि अन्तरङ्ग से १ मिलिता भवन्ति २ बहुज्ञानवान् ३ एतन्नामकः प्ररस्सरः ब० ४ ज्योतिर्विदः ५ कुटिलः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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