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श्रीशान्तिनाथपुराणम् सामवानरता यूयं ते' च तत्रावगच्छतः । जानतोऽपि प्रभोर्युक्तमिदमेवावधीरणम् ॥३५॥ साधिक्षेपं तदाकूतं दूतवाक्यादबोधि यत् । मया दुर्मेधसाप्येतत्केषां कुर्यान्न विस्मयम् ॥३६॥ प्रहेयमिदमेवेति नामग्राहं प्रहिण्वता । दूतं तेनैव चाख्यातः कोपश्च तदलाभजः ॥३७।। लब्ध्वा तुष्येवल ध्वेष्टं परो वैरायते द्रुतम् । तुल्या शक्तिमतोयाञ्चा हस्त्यारूढस्य भिक्षया ॥३८॥ प्राणतोऽपि प्रियं जातमेतन्मे गायिकाद्वयम् । यदोदमन्यथा कुर्यात्स्वामी नि:स्वामिकोऽप्यहम् ॥३६॥ क्रुद्धोऽप्येतावदेवोक्त्वा जोषमास्त स भूपतेः। मुखस्थिति' मुहुः ५पश्यंस्तदाकूतजिघृक्षया ॥४०॥ राजकार्यानुवतिन्या वाचा मन्त्रविदुक्तया । क्षरणं दोलायते स्मासौ भ्रातुश्च सविषादया॥४१॥ ततः क्षणमिवध्यात्वा कार्य किञ्चित्सुनिश्चितम् । इत्युवाच वचो राजा धीरो हि नयमार्गवित् ॥४२॥ न नीतितत्त्वं संवित्त्या न स्वातन्त्र्याभिलाषया । ब्रवीमि युक्तमेतच्चेद्भवतामस्त्यनुग्रहः ॥४३॥ है। भावार्थ-नानार्थक वचनों को लोग अपने अपने अभिप्राय के अनुसार ग्रहण करते हैं यह सिद्धान्त है तदनुसार आप साम और दान के प्रेमी होने से उन्हें ग्रहण कर रहे हैं परन्तु महाराज के लिये यह उपाय अनादर रूप हैं ।।३५।। मैंने बुद्धिहीन होने पर भी दूत के वचनों से यह समझ लिया है कि दमितारि का अभिप्राय तिरस्कार से सहित है अर्थात् वह हम लोगों का तिरस्कार करना चाहता है । यह किन्हें आश्चर्य उत्पन्न नहीं करता ? अर्थात् सभी को आश्चर्य उत्पन्न करता है ।।३६।। यह गायिकाओं का युगल भेजना ही चाहिये इसप्रकार नाम लेकर दूत को भेजते हुए उसने गायिकाओं की प्राप्ति न होने से उत्पन्न होने वाला अपना क्रोध भी प्रकट किया है। भावार्थ-दमितारि ने प्रकट किया है कि यदि गायिकाओं का युगल मेरे पास न भेजोगे तो मैं तुम्हारे ऊपर ऋद्ध हो जाऊंगा-तुम्हें मेरे क्रोध का भाजन बनना पड़ेगा ।।३७॥ शक्तिशाली मनुष्य इष्ट वस्तु को प्राप्त कर संतुष्ट हो जाता है और नहीं प्राप्त कर शीघ्र ही वंर करने लगता है परन्तु शक्तिशाली मनुष्य की याचना हाथी पर सवार मनुष्य की भिक्षा के समान है । भावार्थ-जिसप्रकार हाथी पर सवार व्यक्ति को भिक्षा मांगना अच्छा नहीं लगता उसीप्रकार शक्तिशाली मनुष्य को किसी से कुछ याचना करना शोभा नहीं देता ॥३८॥ यह गायिकाओं का युगल मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो गया है । यदि इसे स्वामी अन्यथा करते हैं-- मेरे पास से हटाकर दमितारि के पास भेजते हैं तो मैं भी स्वामी रहित हं-अपने आपको स्वामी से रहित समझ्गा ॥३६॥ अनन्तवीर्य ऋद्ध होने पर भी राजा-अपराजित के अभिप्राय को जानने की इच्छा से बार बार उसकी मुख स्थिति को देखता हुआ इतना कह कर ही चुप बैठ गया ।।४०।। मन्त्री ने राजकार्य के अनुरूप जो वचन कहे तथा भाई-अनन्तवीर्य ने विषाद से भरे हुए जो वचन कहे उनसे राजा अपराजित क्षण भर के लिये अधीर हो गये ।।४१।। तदनन्तर राजा ने क्षणभर किसी सुनिश्चित कार्य का विचार कर इस प्रकार के वचन कहे सो ठीक ही है क्योंकि धीर वीर मनुष्य नीतिमार्ग का ज्ञाता होता है ।। ४२॥
नीतितत्त्व न तो स्वानुभव से संगत होता है और न स्वतन्त्रता की इच्छा से । यदि आप लोगों का अनुग्रह हो तो इस संदर्भ में एक बात कहता हूँ ।।४३।। मैं पूर्व भव में विद्याओं का पारदर्शी
१ मामदाने * तनावगच्छत ब. २ प्रेषयता * दलब्धे च ब० ३ तूष्णीमतिष्ठत् ४ मुखाकृतिम् ५ तदभिप्रायग्रहर्णच्छया ।
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