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________________ प्रथम सर्गः ११ शक्तित्रयवता' तेन विधृतककशक्तयः । समरे विजिताः शेषा भूपा इत्यत्र का कथा ॥४॥ पञ्चांगमन्त्रसंयुक्तो' निगृहीतेन्द्रियस्थितिः । पासीसिहासनस्थोऽपि क्षमाधानपरो मुनिः ॥८॥ प्रियोपायत्रये यस्मिन् क्षमा पाति फलितेऽभवत् । दुरारोहे तरावेव दण्डस्यागतिका गतिः ॥८६॥ सर्वग्रन्थे च संशय्य नीतिशास्त्रविदोऽप्यलम् । तिष्ठते स्म सदाप्यस्मिन्नयमार्गः स मूतिमान् ॥७॥ भ्राता संदर्पितोऽप्यासीत्तत्संसर्गेण नीतिमान् । श्रेयसे हि सदा योगः कस्य न स्यान्महात्मनाम् ॥८॥ बिभ्रारणौ तौ परां लक्ष्मीमविभक्तां विरेजतुः । एककल्पलताकान्तकल्पपादपसन्निभौ ॥८६॥ प्रन्यदाविदितः+ कश्चित्खेचरस्तौ विशांपती । प्रणिपत्यामितो वाणीमिति वक्तु प्रचक्रमे ॥६॥ -शत्रुसमूह को जीता था किन्तु यथास्थान स्वीकृत किये हुए व्रतों के द्वारा परलोक-नरकादि परलोक को भी जीत लिया था ॥३॥ उत्साहशक्ति, मन्त्रशक्ति और प्रभुत्वशक्ति इन तीनशक्तियों से युक्त अपराजित ने एक एक शक्ति को धारण करने वाले शेष राजानों को युद्ध में जीत लिया था इसमें क्या कहना है? भावार्थ-अपराजित उपर्युक्त तीन शक्तियों से सहित था जबकि शेष राजा एक शक्ति-शक्ति नामक एक ही शस्त्र को धारण कर रहे थे अतः उनका जीता जाना उचित ही था ॥४॥ जो पञ्चाङ्ग-पांच महाव्रतरूपी मन्त्र से युक्त था ( पक्ष में सहाय, साधन के उपाय, देश विभाग, कालविभाग और आपत्ति का प्रतिकार इन पाँच मङ्गों से सहित था) तथा जिसने इन्द्रियों की स्थिति को जीत लिया था ऐसा राजा अपराजित सिंहासन पर स्थित होता हुआ भी क्षमा-पृथिवी अथवा शान्ति से यूत्त क्त मानों दसरा मनि ही था ॥५५॥ साम, दान और भेद ये तीन उपाय ही जिसे प्रिय थे ऐसा अपराजित जब सफलता के साथ पृथिवी की रक्षा कर रहा था तब दण्ड-दण्ड नामक उपाय ( पक्षमें फल तोड़ने के लिये फेंके गये डंडे ) की गति अन्य उपाय न होने से दुरारोह-अत्यन्त ऊंचे वृक्ष पर ही हुयी थी। भावार्थ-जिस पर चढ़ना कठिन है ऐसे वृक्ष के फल तोड़ने के लिये जिस प्रकार दण्डडंडे का उपयोग किया जाता है उसीप्रकार जिसको साम आदि तीन उपायों के द्वारा जीतना संभव नहीं था उसीको जीतने के लिये अपराजित दण्ड-युद्ध नामक उपाय को अङ्गीकृत करता था ॥८६॥ नीतिशास्त्रके अच्छे ज्ञाता भी समस्त ग्रन्थों में संशय कर स्थित देखे जाते हैं परन्तु इस अपराजित में वह नीतिका मार्ग सदा मूर्तिमान् होकर स्थित रहता था। भावार्थ-नीति शास्त्र के बड़े बड़े ज्ञाता भी कदाचित् किसी शास्त्र में संशयापन्न देखे जाते हैं परन्तु वह अपराजित मानों नीति मार्ग की मूर्ति ही था अतः वह कभी भी संशयापन्न नहीं होता था ।।७।। यद्यपि उसका भाई अनन्तवीर्य, गर्व से युक्त था तथापि वह उसके संसर्ग से नीतिमान हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि महात्माओं का सदा योग प्राप्त होना किसके कल्याण के लिये नहीं होता ? अर्थात् सभी के कल्याण के लिये होता है ।।८८।। अविभक्त उत्कृष्ट लक्ष्मी को धारण करने वाले वे दोनों भाई एक कल्पलता से युक्त कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे ।।६।। किसी समय कोई अपरिचित विद्याधर पाया और दोनों राजाओं-अपराजित और अनन्तवीर्य को बार बार प्रणाम कर इस प्रकार के वचन कहने लगा ।।९। सार्थक नाम को धारण करने १ उत्साहशक्तिर्मन्त्र शक्तिः प्रभुत्वशक्ति - एतच्छक्तित्रययुक्तेन २ 'सहायः साधनोपायो विभागो देशकालयोः । विनिपात प्रतीकारः सिद्धि पञ्चाङ्गमिष्यते' ।। * संसज्य ब० + अन्यदावेदितः ब० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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