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________________ १० श्री शान्तिनाथपुराणम् भूयोभूयः प्रणम्येशं त्रिः परोत्यापराजितः । निरगात्सानुजस्तस्मादास्थानात्सह नागरैः ॥७४॥ बाह्यस्थं यानमारुह्य स प्राप नगरीं ततः । स्वामिप्रव्रजनोद्व गाम्लानशोभासमन्विताम् ॥७५॥ निरानन्दजनोपेतं प्रविश्य नृपमन्दिरम् । सोद्व ेगाः सकलाश्चाम्बाः प्ररणम्याश्वासयत्स्वयम् ॥७६॥ यथानुरूपं 'प्रकृतीः सर्वाः सम्मान्य राजवत् । मौलैरनुगतोऽयासीद्धीरः स्वभवनं शनैः ॥७७॥ तत्रामायोपरोधेन सार्धं भ्रात्रा यवीयसा । स वासरक्रियाः सर्वाः सालसं निरवत्र्तयत् ॥७८॥ प्रथैकदा नरेन्द्रौघैरभिषिक्तोऽपराजितः । वशी राज्यधुरं भेजे क्रमेणैव न तृष्णया ॥७६॥ सिहासनसितच्छत्रचामरैः स्वीकृतैरपि । युवराजः स एवासीद्भ्रात्रे दत्त्वाखिलां धराम् ॥८०॥ यमपि तं घुयं स्वद्वितीयं विधाय सः । प्रायासेन विना कृत्स्ना मधत्त जगतो घुरम् ॥८१॥ प्रन्तःस्थाराति 'षड्वर्ग जयेन स यथा बभौ । न तथा शरणायातः परचक्र क्षितीश्वरः ॥८२॥ प्रङ्गीकृतं यास्थानमुपायैरेव केवलम् । न व्यजेष्टातिदूरस्थं 'परलोकं व्रतैरपि ॥८३॥ अपराजित, स्वयंप्रभ जिनेन्द्र को बार बार प्रणाम कर तथा तीन प्रदक्षिरणाएं देकर भाईअनन्तवीर्यं तथा नागरिक जनों के साथ उस समवसरण सभा से बाहर निकला ॥७४ ।। तदनन्तर बाहिर खड़े हुए वाहन पर सवार होकर वह राजा स्तिमितसागर के दीक्षा लेने सम्बन्धी उद्व ेग से मन्दशोभा युक्त नगरी को प्राप्त हुआ । भावार्थ - राजा के दीक्षा लेने से नगरी में शोक छाया हुआ था अतः शोभा कम थी ।। ७५ ।। हर्ष रहित मनुष्यों से युक्त राज भवन में प्रवेश कर उसने उद्व ेग से युक्त समस्त माताओं को प्रणाम पूर्वक स्वयं संबोधित किया ||७६ || समस्त प्रजाजनों का राजा के समान यथायोग्य सन्मान कर धीरवीर श्रपराजित धीरे धीरे अपने भवन की ओर गया । उस समय मन्त्री श्रादि मूल वर्ग उसके पीछे पीछे चल रहा था || ७७ ॥ वहां मन्त्रियों के अनुरोध से उसने तरुण भाई श्वनन्तवीर्य के साथ अलसाये मन से दिन की समस्त क्रियाएं कीं ॥७८॥ तदनन्तर एक समय राजानों के समूह द्वारा जिसका अभिषेक किया गया था ऐसे जितेन्द्रिय अपराजित ने वंश परम्परा के क्रम से ही राज्यभार को प्राप्त किया था तृष्णा से नहीं ।। ७६ ।। उसने यद्यपि सिंहासन, सफेद छत्र और चामरों को स्वीकृत किया था तथापि भाई - अनन्तवीर्य के लिये सम्पूर्ण पृथिवी प्रदान कर दी और स्वयं युवराज ही बना रहा ||५० ॥ यद्यपि राज्यभार को धारण करने वाला अनन्तवीर्यं मदम्य था तथापि उसे अपने आपके द्वारा द्वितीय बनाकर - अपना अभिन्न सहायक बनाकर किसी खेद के बिना उसने जगत् के समस्त भार को धारण किया था ॥ ८१ ॥ भीतर स्थित काम क्रोध लोभ मोह मद और मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुनों पर विजय प्राप्त करने से वह जैसा सुशोभित हो रहा था वैसा शरण में प्राये हुए शत्रु पक्ष के राजाओंों से सुशोभित नहीं हुआ ॥८२॥ यथा स्थान स्वीकृत किये हुए सामादि उपायों के द्वारा उसने न केवल अत्यन्त दूरवर्ती परलोक * प्रणम्येनं ब० १ अमात्यप्रभृति जनान् २ अमात्यादिमूलवर्गे: वीरः ब० ३ तरुणेन धुरां ब० । ४ धारयामास अन्तःस्थानामरातीनां रिपूणां षड्वर्ग :- कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्पाणां षण्णां वर्गः तस्यजयेन ६ परराष्ट्रनृपतिभि ७ सामादिभिः ८ शत्रु जनम् पक्षे नरकादिभवम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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