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________________ प्रथम सर्ग: प्रसन्नदुनिरीक्ष्याभ्यां ताभ्यां रेजे सभूपतिः । पूर्णेन्दुभास्करोपेतः पूर्वाचल इवापरः ॥६४॥ अन्यदत्य' सभान्तःस्थं प्रतीहारनिवेदितः । वनपालः प्रणम्यवं वचो राजानमब्रवीत् ।।६।। प्रास्ते स्वयंप्रभो नाम्ना जिनेन्द्रस्त्रिदशैः समम् । उद्याने भगवान्सद्यः पुष्पिते पुष्पसागरे॥६६॥ एवमुक्तवते तस्मै दत्त्वासौ पारितोषिकम् । राजा तमभ्यगानन्तुं पौरैः सह ससैनिकः ॥६७॥ मानस्तम्भान् विलोक्याान् दूरादुत्तीर्य यानतः। राजलक्ष्म्याऽविशद्राजा ससूनुः प्रावलिः सभाम् ॥६॥ त्रिःपरीत्य तमीशानं ५सार्वीयं सर्वतोमुखम् । ववन्दे भक्तिशुद्धात्मा स्वं नामावेद्य 'वेद्यक्त् ि ॥६६।। धर्म श्रुत्वा ततः सम्यक् पौरुषेयार्थसाधनम् । प्रावाजीत्तनये ज्येष्ठे लक्ष्मी विन्यस्य भूपतिः ॥७०॥ मालोक्य तत्समान्तःस्थं धरणेन्द्र महद्धिकम् । अज्ञातमार्गसद्भावो निदानमकरोच्च सः ॥७१॥ जाततत्त्वरुचिः साक्षात्तत्राणुवतपञ्चकम् । भव्यतानुगृहीतत्वादग्रहीदपराजितः ॥७२॥ हृदयेऽनन्तवीर्यस्य वाक्यं तीर्थकृतोऽपि तत् । नायोग्यत्वात्पदं लेभे पद्म शोचिरिवैन्दवम् ॥७३॥ प्रसन्न तथा कठिनाई से देखने योग्य उन दोनों पुत्रों से राजा स्तिमितसागर, चन्द्रमा और सूर्य से युक्त दूसरे पूर्वाचल के समान सुशोभित हो रहा था ॥६४।। किसी समय प्रतीहार-द्वारपाल ने जिसकी सूचना दी थी ऐसे वनपाल ने आकर सभा के भीतर बैठे हुए राजा को प्रणाम कर इसप्रकार के वचन कहे ॥६५॥ जिसमें शीघ्र ही षड् ऋतुओं के पुष्प लग गये हैं ऐसे पुष्प सागर नामक उद्यान में भगवान् स्वयंप्रभ जिनेन्द्र देवों के साथ विद्यमान हैं ॥६६।। इसप्रकार कहने वाले वनपाल के लिये पारितोषिक देकर राजा उन जिनेन्द्र को नमस्कार करने हेतु नगरवासी तथा सैनिकों के साथ उनके सन्मुख गया ।।६७॥ पूजनीय मानस्तम्भों को दूर से देख कर राजा वाहन से उतर पड़ा और पुत्रों सहित उसने हाथ जोड़ कर राज लक्ष्मी के साथ सभा में प्रवेश किया ।।६८।। जिसकी आत्मा भक्ति से शुद्ध थी तथा जो जानने योग्य कार्यों को जानता था ऐसे राजा ने सर्व हितकारी उन चतुरानन स्वयंप्रभ जिनेन्द्र की तीन प्रदक्षिणाएं दी और अपना नाम प्रकट कर उन्हें नमस्कार किया ॥६६।। तदनन्तर राजा ने पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाले धर्म को अच्छी तरह सुन कर तथा ज्येष्ठ पुत्र को राज्य लक्ष्मी सौंपकर दीक्षा ले ली ।।७०।। जैन मार्ग के उत्तम भाव को न जानने वाले स्तिमितसागर मनिराज ने समवसरण के भीतर स्थित महान ऋद्धियों के धारक धरणेन्द्र को देखकर निदान बन्ध कर लिया- मैं तपश्चरण के फलस्वरूप धरणेन्द्र होऊं ऐसा विचार किया ॥७१॥ जिसे तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न हुई थी ऐसे अपराजित ने भव्यत्वभाव से अनुगृहीत होने के कारण वहां साक्षात् पांच अणुव्रत ग्रहण किये ।।७२।। परन्तु अनन्तवीर्य के हृदयमें योग्यता न होनेसे तीर्थंकर भगवान् स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के भी वह वचन उसप्रकार स्थान नहीं प्राप्त कर सके जिसप्रकार कि चन्द्रमा की किरणें कमल में स्थान प्राप्त नहीं करती हैं ।।७३॥ १ अन्यदा एत्य इति सन्धिः २ पुष्पयुक्ते ३ एतन्नामधेये ४ सपुत्रः ५ सर्वहितकरम् . सर्वीयं ब० ६ ज्ञेयज्ञः तनुजे ब०७किरण: ८ चन्द्रसम्बन्धी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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