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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् ततो बसुमती सूनुमसूत सुतशालिनी । यस्मिन्न स्वयंमेवासीज्जाते राजापि सुप्रजाः ॥५॥ अनन्तवीर्यो नाम्नव नामूद् भूरिपराक्रमः । य: समुन्मीलिताशेषभूभृशेन चौजसा ॥५६।। पालयिष्यति मे बाहुर्वक्षिणः सकला घराम् । इत्यमन्यत या सैन्यं पृथुकोऽपि विभूतये ॥५७।। प्रधःस्थितस्य लोकाना भोगीन्द्रत्वं कवं भवेत् । महीना भर्तु रित्युच्चों बभाषेऽभिमानतः ॥८॥ उपायेषु मतो दण्डश्चण्डविक्रमशालिन: । प्रासोद्वीररसो यस्य रसेषु सकलेषु च ॥५६।। स्वरूपालोकनायैव वीरलक्ष्म्या पसलक्षणः । स्वयं वा निर्मितो नूनं तादृशो मणिदर्पणः ॥६०॥ एकान्तशौर्यशौण्डोर्यश्लाघापितचेतसः । बालक्रीडाऽभवद्यस्य ‘पञ्जरस्थैर्मृगाधिपः ॥६१।। शरन्नभस्तलश्यामो यः प्रांशुः शुशुमे परम् । इन्द्रनीलमयो लक्ष्म्याः प्रासाद इव जंगमः ॥६२॥ प्रमून्नसगिकी प्रीतिस्तयोर्भवविजिता । यदन्यभवसम्बन्धं अवागेवाक्षरविना ॥६३॥ तदनन्तर राजा स्तिमितसागर की दूसरी रानी वसुमती ने पुत्र उत्पन्न किया। जिसके उत्पन्न होने पर न केवल रानी वसुमती, स्वयं ही पुत्र से सुशोभित हुई थी किन्तु राजा भी सुप्रजाउत्तम संतान से युक्त हुए थे ॥५५।। विशाल पराक्रम का धारी जो पुत्र नाम से ही मनन्तवीर्य नहीं हना था किन्तु समस्त राजवंशों को उखाड़ देने वाले तेज के द्वारा भी अनन्तवीर्य हुआ था ।।५६।। 'मेरी दक्षिण भुजा ही समस्त पृथिवी का पालन करेगी' इस अभिप्राय से जो बालक होता हुआ भी सेना को विभूति के लिये ही मानता था। भावार्थ-उसे अपने बाहुबल पर विश्वास था सेना को तो वह मात्र वैभव का कारण मानता था ।।५७।। लोकों के नीचे रहने वाले नागेन्द्र के भोगीन्द्रपन कैसे हो सकता है ? इस प्रकार जो अभिमान वश जोर जोर से कहा करता था। भावार्थ -शेषनाग तो तीनों लोकों के नीचे रहता है अतः वह भोगीन्द्र-भोगी पुरुषों का इन्द्र ( पक्ष में नागों का इन्द्र) कसे हो सकता है ? भोगीन्द्र तो मैं हूँ जो लोकों के ऊपर रहता हूँ इस प्रकार वह अभिमान वश जोर देकर कहा करता था। ५८।। उग्र पराक्रम से सुशोभित होने वाले जिस अनन्त वीर्य को साम यादि चार उपायों में दण्ड उपाय ही अच्छा लगता था और समस्त रसों में वीर रस ही इष्ट था ।।५।। ऐसा जान पड़ता था मानों अपना रूप देखने के लिये वीर लक्ष्मी ने उत्तम लक्षणों से सहित उसप्रकार का मणिमय स्वयं ही निर्मित किया था। भावार्थ-वह अनन्तवीर्य, वीरलक्ष्मी का स्वरूप देखने के लिये मानों स्वनिर्मित मणिमय दर्पण ही था ॥६०॥ एकान्त शूरता, शौण्डीरता तथा प्रशंसा से जिसका चित्त अहंकार से युक्त हो रहा है ऐसे जिस अनन्तवीर्य की बाल क्रीडा पिंजड़ों में स्थित सिंहों के साथ हुआ करती थी॥६१।। शरद ऋतु के आकाशतल के समान श्याम वर्ण, पूरे ऊंचे शरीर को धारण करने वाला जो अनन्त वीर्य, लक्ष्मी के इन्द्रनीलमणि निर्मित चलते फिरते महल के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।६२।। अपराजित और अनन्तवीर्य में भेद से रहित स्वाभाविक प्रीति थी क्योंकि वह अक्षरों के बिना अन्यभव के सम्बन्ध को मानों कह रही थी ।।६३।। यस्मिश्च ब०।१. शोभनसन्तानयुक्तः २. समुन्मीलिताः समुत्पाटिता अशेषभूभृतां निखिलनपाणां पक्षे सकल शैलानां शा: कुलानि पक्षे वेणवो येन तेन ३. बालकोऽपि सन् ४. सामादिषु ५. शोभन लक्षण सहितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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