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________________ १२ श्रीशान्तिनाथपुराणम् चक्रवर्ती यथार्थाख्यो दमितारिः सदः स्थितः । नमसोऽवतरन्तं द्रागद्राक्षीन्नारदं मुनिम् ॥११॥ स नाभ्येतिभुवं यावत्तावदुत्थाय विष्टरात् । प्रणम्यायातचित्वा क्रमात्पीठे न्यवोविशत् ॥१२॥ विधान्तं च तमप्राक्षोत्तदागमनकारणम् । ततोऽवादोन्मुनिः प्रोतः श्रीमन्नाकर्ण्यतामिति ॥६॥ पुरी प्रभाकरी नाम्ना विदिता भवतोऽपि सा । भ्रातुर्विन्यस्य भूभारं शास्ति तामपराजितः ॥१४॥ प्रतीतेऽहनि तन्मूले गायतस्ते स्म गायिके । एका किरातिका नाम्ना परा बर्बरिकाभिधा ॥६॥ आत्मवानपि भूपालस्तद्गीत्या विवशीकृतः। प्रायान्तं मां च नाद्राक्षीद्विषयी कः सचेतनः ॥६६॥ ततोऽहमागतो योग्ये संघटा गायिके च ते। तवैवोच्चरतोऽन्यन्मे मुनेर्वक्तुमसांप्रतम् ॥७॥ एवमुक्त्वा गिरं तस्मिन्प्रयाते क्वापि नारदे । 'निसृष्टार्थं तदर्थ मां प्राहैषीत्स त्वदन्तिकम् ॥६॥ इत्यागमनमावेद्य ततः सोऽभ्यरणवर्तिनः । अमात्यस्य करे किञ्चित्समुद्र५ 'प्राभृतं ददौ ॥६॥ ततो राजा स्वयं दूतमावासाय विसयं तम्। मन्त्रिणा प्राभृते मुक्त कृत्स्ना ज्योत्स्ना व्यलोकयत ॥१००।। तेनोदस्तं पुरो हारं नोहारांशुमिवापरम् । अद्राक्षीत्सुचिरं मूतं यशोराशिमिवात्मनः ॥१.१।। वाले दमितारि चक्रवर्ती सभा में बैठे हुए थे कि उन्होंने शीघ्र ही आकाश से उतरते हुए नारद मुनि को देखा ॥९१।। वे जब तक पृथिवी पर नहीं आ पाये तब तक चक्रवर्ती ने आसन से उठ कर उन्हें प्रणाम किया । पाने पर उनकी पूजा की और तदनन्तर कम से उन्हें आसन पर बैठाया ।।२।। जब नारद जी विश्राम कर चुके तब उनसे उनके आगमन का कारण पूछा। तदनन्तर नारदजी बडी प्रसन्नता से कहने लगे-हे श्रीमान् ! सुनिये-॥३॥ एक प्रभाकरी नाम की नगरी है जो आपको भी विदित है। भाई के ऊपर पृथिवी का भार सौंपकर अपराजित उसका शासन करता है ।।६४॥ पिछले दिन उसके पास दो गायिकाए गा रहीं थीं। उनमें एक का नाम किरातिका था और दूसरी का नाम बर्बरिका ॥६५॥ राजा अपराजित जितेन्द्रिय होने पर भी उनके गायन से विवश हो गये इसलिये उन्होंने आते हुए मुझे नहीं देखा । ठीक ही है क्योंकि विषय की इच्छा रखने वाला कौन मनुष्य सचेतन रहता है-सुध बुध से युक्त होता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।१६।। इसलिये मैं आया हूं। वे योग्य गायिकाएं तुम्हारी ही संगति को प्राप्त हों। इसके सिवाय मुझ मुनिका और कुछ कहना अनुचित है ।।१७।। ऐसा कहकर जब नारदजी कहीं चले गये तब चक्रवर्ती दमितारि ने उन गायिकाओं के लिये मुझ दूत को आपके पास भेजा है ।।१८।। इस प्रकार पाने का समाचार कह कर उस दूतने निकटवर्ती मन्त्री के हाथ में कुछ मुहरबंद भेंट दी ।।६।। तदनन्तर राजा ने उस दूत को निवास करने के लिये स्वयं विदा किया और मन्त्री द्वारा मुहरबंद भेंट के खोलने पर पूर्ण चांदनी को देखा । भावार्थ --मंत्री ने ज्योंही भेंट को खोला त्योंही पूर्ण चांदनी जैसा प्रकाश छा गया ॥१००।। मन्त्री द्वारा उठा कर आगे रखे हुए हार को जो कि १ प्रधानतं २ प्रेषितवान् ३ त्वत्सम पम् ४ निकटवर्तिनः ५ मुद्रा सहितं ६ उपहारम् Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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