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________________ प्रथम सर्ग। सुश्लिष्टसन्धिबन्धाङ्ग।' प्रसन्नामल वृत्तिभिः । पौरैरापरणमार्गस्थर्या स्थिता नाटकरिव ॥२६॥ नानामुक्ताप्रवालाविरत्नपूर्णापरणश्रियम् । यस्यां वीक्ष्य धनेशोऽपि स्वां भूतिमवमन्यते ॥३०॥ प्रभूत् त्राता पुरस्तस्या राजा स्तिमितसागरः । सागरः स्तिमितो येन गाम्भीर्येण पराजितः ॥३१॥ सत्यत्यागाभिमानानां परां कोटिमधिष्ठितः । यस्तदाधारभूतोऽपि चित्रमेतद्विचेष्टितम् ॥३२॥ सन्नप्यन्यायशब्दोऽसौ लुप्तो येन बलात् क्षितौ । इतीयानेव यत्रासीवन्यायो न्यायशालिनि ।।३३।। यस्य श्रुताधिकस्यापि नित्योद्योगः श्रुतेऽभवत् । न हि सन्तोषमायान्ति गुणिनोऽपि गुणार्जने ॥३४।। परस्तु दुस्सहं बिभ्रत्प्रतापमपि भूमिपैः । या स्वपादजुषां सृष्णां निरासेन्दुरिवापरः ।।३।। यत्प्रज्ञा तनुते नीति नीति: पाति धरा धरा । "दुग्धे वस्तूनि तैर्येन सर्वेक्षतीर्थ्याः प्रसाषिताः ॥३६।। जो नगरी नाटकों के समान दिखने वाले नगर वासियों से युक्त थी। क्योंकि जिसप्रकार नाटक सुश्लिष्ट सन्धिबन्धाङ्ग-यथा स्थान विनिविष्ट मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और उपसंहृति इन पांच सन्धियों तथा उनके चौसठ जोंसे सहित होते हैं उसीप्रकार नगरवासी भी सश्लिष्ट-अच्छी तरह सम्बन्ध को प्राप्त सन्धिबन्धों-अंगोपाङ्गों के जोड़ो से युक्त शरीरों से सहित थे। जिसप्रकार नाटक प्रसन्नामलवृत्ति-प्रसाद गुण से युक्त निर्मल कैशिकी, सात्त्वती, आरभटी और भारती इन चार वृत्तियों से युक्त होते हैं उसीप्रकार नगरवासी भी प्रसन्नामलवृत्ति-प्रसन्न और निर्दोष व्यवहार से युक्त थे तथा जिसप्रकार नाटक आपणमार्गस्थ-बाजार के मार्ग में स्थित होते हैं-प्रचार के लिये आवागमन के स्थानों पर नियोजित किये जाते हैं उसीप्रकार नगरवासी भी बाजार के मार्गों में स्थित रहते थे-सम्पन्न होने के कारण अच्छे स्थानों पर निवास करते थे ॥२६।। जहां नाना प्रकार के मोती मूगा आदि रत्नों से परिपूर्ण बाजार की शोभा को देख कर कुबेर भी अपनी विभूति को तुच्छ समझने लगता है ।।३०। उस नगर का रक्षक राजा वह स्तिमित सागर था जिसने गाम्भीर्य गुण के द्वारा निश्चल समुद्र को पराजित कर दिया ॥३१॥ जो राजा सत्य, त्याग और अभिमान का आधारभूत होता हुआ भी उनकी अन्य कोटी को प्राप्त था, यह एक आश्चर्य कारी चेष्टा थी। परिहार पक्ष में सत्य त्याग और अभिमान की उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त था ॥३२।। न्याय से सुशोभित रहने वाले जिस राजा में इतना ही अन्याय था कि उसने यद्यपि अन्याय शब्द विद्यमान था फिर भी उसे पृथिवी पर बल पूर्वक लुप्त कर दिया था। भावार्थ-उसने अन्याय शब्द को पृथिवी से जबरन नष्ट कर दिया था इतना ही उसका अन्याय था ॥३३॥श्रत-शास्त्रज्ञान से अधिक होने पर भी जिस राजा का श्रत के विषय में निरन्तर उद्योग रहता था। यह ठीक ही है क्योंकि गुणी मनुष्य गुणों का संचय करने में संतोष को प्राप्त नहीं होते हैं ॥३४।। अन्य राजाओं के द्वारा दुःख से सहन करने योग्य प्रताप को धारण करता हया भी जो राजा द्वितीय चन्द्रमा के समान अपने चरणों की सेवा करने वाले ( पक्ष में अपनी किरणों की सेवा करने वाले ) मनष्यों की तष्णा-लालसा (पक्ष में प्यास) को न करता था ॥३५।। जिसकी बुद्धि नीति को विस्तृत करती थी, नीति पृथिवी का पालन करती थी और पृथिवी १. सुष्ठुसन्धिबन्धोपशोभितशरीरः पक्षे यथास्थानविनिवेशितगर्भादिपञ्चसन्धिस्थानः । २. प्रसन्न निर्मला चार: पक्षे प्रसाद गुणोपेत निर्दोष कौशिकीप्रभृति वृत्तिसहित।। ३. निश्चलः । ४. दूरीकरोति स्म । ५ प्रपूरयति । सर्व तीर्थ्याः ब०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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