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________________ श्री शान्तिनाथपुराणम् कृतागसोऽपि वध्यस्य यः प्रहम्ति स्म न प्रभुः । दण्डये महति वा क्षुद्रे शक्तस्यैव 'क्षमा 'क्षमा ||३७॥ प्रनाथवत्सले यस्मिन् रक्षति क्षितिमक्षताम् । स्वप्नेऽपि शरणार्थिन्यः प्रजा नासन्महौजसि ॥ ३८ ॥ कृपाविः कृतये नूनं वल्लमानपि यो गुरगान् । निर्वासितारिभिः सार्द्ध मालोकान्तमजीगमत् ॥३॥ स्वनिविशेषमालोक्य सद्भृत्येषु निवेशिताः । यस्यान्तरज्ञतां भर्तुः ख्यापयन्ति स्म भूतयः ॥ ४० ॥ श्रथ तस्य प्रजेशस्य प्रजाक्षेमविधायिनः । बभूवतुरुभे जाये "सत्याचारविभूषिते ॥ ४१ ॥ प्रासीद्वसुन्धरा पूर्वा क्षान्त्या " जितवसुन्धरा । श्रभ्या 'वसुमतीनाम्ना 'पावसुमती सती ॥४२॥ नीत्या लक्ष्म्या च भूपालो नेवारमत केवलम् । ताभ्यामपि यथाकालं मनोज्ञाभ्यां मनोरमः ॥४३॥ प्रजायत महादेव्याः सूनुर्नाम्नाऽपराजितः । कदाचिदपि युद्धेषु यः परैर्न पराजितः ॥ ४४ ॥ कुन्दगौरः प्रसन्नात्मा १० वितन्वन्कुमुवायतिम् । जातमात्रोऽपि यश्चित्रं प्रवृद्ध न्दुरिवाभवत् ||४५ || 1 ६ प्रजा वस्तुनों को पूर्ण करती थी इसप्रकार जिस राजा ने इन बुद्धि आदि के द्वारा सब सहाध्यायियों को अलंकृत किया था ।। ३६ ।। जो राजा अपराध करने पर भी वध्य पुरुष का घात नहीं करता था सो ठीक ही है क्योंकि दण्ड देने योग्य मनुष्य चाहे बड़ा हो चाहे छोटा, समर्थ मनुष्य की ही क्षमा क्षमा कहलाती है ।।३७।। अनाथ वत्सल तथा महाप्रतापी जिस राजा के समस्त पृथिवी की रक्षा करने पर प्रजा स्वप्न में भी शरणार्थिनी - शरण की इच्छुक नहीं थी । भावार्थ - उस राजा के राज्य निर्भय होकर निवास करती थी । कोई किसी से भयभीत होकर किसी को शरण में नहीं जाता था ।। ३८ ।। जान पड़ता है जिस राजा ने दया प्रकट करने के लिये अपने प्रिय गुणों को भी निर्वासित शत्रुओं के साथ लोक के अन्त तक भेज दिया था ||३६|| अपने समान देखकर समीचीन सेवकों में प्रदान की हुई सपदाएँ जिस राजा की अन्तरज्ञता को प्रकट करती थीं । भावार्थ- वह राजा सत् और असत् सेवकों के अन्तर को जानता था इसलिये सत् सेवकों को अपने समान समझ कर खूब सम्पत्ति देता था ||४०|| प्रथानन्तर प्रजा का कल्याण करने वाले उस राजा की सती - शीलवती स्त्री के प्रचार से विभूषित दो स्त्रियां थीं ॥ ४१ ॥ उनमें पहली स्त्री वसुन्धरा थी जिसने क्षमा के द्वारा पृथिवी को जीत लिया था और दूसरी स्त्री वसुमती नामकी थी जो पातिव्रत्य धर्म से युक्त तथा लज्जा रूपी धन से सहित थी ॥ ४२ ॥ | मनोहर राजा, न केवल नीति और लक्ष्मी के साथ रमरण करता था किन्तु उन सुन्दर दोनों स्त्रियों के साथ भी यथा समय रमण करता था ||४३|| महादेवी वसुन्धरा के अपराजित नामका पुत्र हुआ जो युद्धों में कभी भी शत्रुओं के द्वारा पराजित नहीं होता था ।। ४४ ।। बड़े प्राश्चर्य की बात थी कि जो पराजित उत्पन्न होते ही पूर्णचन्द्रमा के समान था । क्योंकि जिसप्रकार पूर्णचन्द्रमा कुन्द के समान गौरवर्ण होता है उसीप्रकार वह अपराजित भी कुन्द के समान गौरवर्ण था । जिसप्रकार पूर्णचन्द्रमा प्रसन्नात्मा - निर्मल होता है उसीप्रकार वह अपराजित भी प्रसन्नात्मा-प्रह्लादयुक्त था और जिसप्रकार पूर्णचन्द्रमा कुमुदायति-- कुमुदों के उत्तर काल को १. क्षान्ति: । २. युक्ता । ३ प्रियानपि । ४. संपदः । ५. सत्या: शौलवत्या प्राचारेण विभूषिते । ६. वसुन्धरानाम्नी । ७. पराजितवसुधा । ८ वसुमती नाम्नी । ९. लज्जाधनयुक्ता । १०. कुमुदानां कैर वाणामार्यात पक्षे कुः पृथिवी तस्या मुदो हर्षस्यायति वृद्धिम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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