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श्रीशांतिनाथपुराणम्
प्रस्ति लक्ष्मीवतां धाम पुरी यत्र प्रभाकरी । प्रभाकरी' प्रभा यस्यां पताकामिनिरुध्यते ॥ २१ ॥ यस्यां 'नाकालयाः सौधनजिता नैव केवलम् । महानुभावताधारं । पौरैरपि सुधाशनाः ॥२२॥ निष्कुडेवालवालाम्बुनिविष्टप्रतिबिम्बकं । पला" इव लक्ष्यन्ते यत्र मूलेष्वपि द्रुमाः ॥ २३॥ सौधोत्सङ्गा विराजन्ते राजीवैः संचरिष्णुभिः । यस्यां कृतोपहारैर्वा जंगमेरसितोत्पलैः ||२४|| रत्नकुडयेषु संक्रान्तसंच रज्जनमूर्तिभिः । प्रालेख्यैरिव सप्राणैर्भान्ति यत्र सभालयाः ॥२५॥ अन्तःस्थविबुधेयस्यां हाटकामलसारकैः । रम्याः शृङ्गाटका जैन मंन्दरैरिव मन्दिरैः ||२६|| त्रिलोकीसारसं दो हमेकीकृत्य विनिर्मिताः । धात्रा यवङ्गना नूनं द्रष्टुं स्वमिव कौशलम् ||२७| संचारदीपिका यस्यां भवन्त्याभरणप्रभाः । ऋप्रियावासं प्रयान्तीनां नक्तं कृष्णेऽपि योषिताम् ||२८||
रूप प्रयोजन से युक्त धन, धार्मिक कार्य में निपुणता, व्रत और शील की रक्षा करने में निरन्तर तत्परता, अपने गुणों के प्रकट करने में लज्जा और निःस्पृह मित्रता; जहाँ निवास करने वाले सत्पुरुषों की ऐसी चेष्टा देखी जाती है ।।१८-२० ।।
जिस वत्सकावती देश में धनाढ्य पुरुषों के स्थान स्वरूप प्रभाकरी नामकी वह नगरी विद्यमान है जिसमें सूर्य की प्रभा पताकाओं से रुकती रहती है ||२१|| जिस नगरी में भवनों के द्वारा न केवल स्वर्ग के भवन जीते गये थे किन्तु महानुभावता - सज्जनता के आधारभूत नगरवासियों के द्वारा देव भी जीते गये थे ||२२|| जहाँ घर के बाग बगीचों में क्यारियों के जल में पड़े हुए प्रतिबिम्बों से वृक्ष ऐसे दिखाई देते हैं मानों जड़ में भी वे पत्तों से युक्त हों ।। २३॥ जहां भवनों के मध्यभाग चलते फिरते लाल कमलों से अथवा उपहार में चढ़ाये हुए चलते फिरते नीलकमलों से सुशोभित रहते हैं ||२४|| जहाँ के सभागृह रत्नमयी दीवालों में प्रतिबिम्बित होने वाले चलते फिरते मनुष्यों के शरीरों से ऐसे सुशोभित होते हैं मानों सजीव चित्रोंसे ही युक्त हों ।। २५|| जहाँ के त्रिराहे जिन जैनमन्दिरों से सुशोभित हो रहे थे वे सुमेरुपर्वत के समान थे। क्योंकि जिसप्रकार सुमेरुपर्वत श्रन्तः स्थविबुध - भीतर स्थित रहने वाले देवों से युक्त होते हैं उसीप्रकार जैनमंदिर भी प्रन्तःस्थविबुध - भीतर स्थिर रहने वाले विद्वानों से युक्त थे और जिसप्रकार सुमेरुपर्वत सुवर्णरूप निर्मल सारभूत द्रव्य से युक्त होते हैं उसीप्रकार जिनमन्दिर भी सुवर्ण के समान निर्मल द्रव्यों से युक्त थे ॥ २६ ॥ जिस नगरी की स्त्रियां ऐसी जान पड़ती हैं मानों अपनी चतुराई देखने के लिये ब्रह्मा ने उन्हें तीन लोक की श्रेष्ठ वस्तुओं के समूह को एकत्रित कर बनाया था ||२७|| जिस नगरी में अंधेरी रात्रि में भी पति के घर जाने वाली स्त्रियों के अपने आभूषणों की कान्तियां चलती फिरती दीपिकाएं होती हैं ॥२८॥
१. सूर्य सम्बन्धिनी । २. स्वर्गगृहाः । ३. देवाः । ४. गृहारामेषु । ५. पत्त्रयुक्ताः । ६. अन्तः स्थदेवः पक्षे अन्त. स्थविद्वद्भिः | ७ मेरुभिरिव ।
प्रियावास ब० ।
'सरःस्यान्मज्जनि बले स्थिरांशेऽपि पुमानयम् । सारं न्याय्ये जले वित्ते सारं स्याद्वाच्यवद्वरे ।।' इति
विश्वलोचनः ।
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