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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् सुमेधोमिा पुरा गीतं पुराणं यन्महात्मभिः । तन्मया शान्तिनाथस्य यथाशक्ति प्रवक्ष्यते ॥४॥ सर्वज्ञस्यापि चेद्वाक्यं नाभव्येभ्योऽभिरोचते । प्रबोधोपहतः कोऽन्यो ब्रूयात्सर्वमनोरमम् ॥५॥ न कवित्वाभिमानेन न वेलागमनेन वा । मयतत्कथ्यते किन्तु तद्भक्तिप्रवचेतसा ॥६॥ प्रथास्ति सकलद्वीपमध्यस्थोऽपि स्वशोभया । द्वीपानामुपरीबोच्चैर्जम्बूद्वीपो व्यवस्थितः ॥७॥ तत्र पूर्व विदेहानामस्त्यपूर्वो विशेषकः । सीतादक्षिणतीरस्थो विषयो' बत्सकायती ॥८॥ अन्तरा विराजन्ते सुमनःस्थितिशालिनः । पादपा यत्र सन्तश्च स्वफलप्रीरिणतार्थिनः ॥६॥ दृश्यन्ते यत्र कान्तारे छायाच्याजेन तोरजाः । प्रविष्टा दावभीत्येव सरांसि शरणं लताः॥१०॥ नानारत्नकराक्रान्तं यत्र धत्ते वनस्थलम् । इन्द्रायुधशतच्छन्न प्रावृषेण्याम्बुदश्रियम् ॥११॥ प्रभवन्त्योऽवगाढानां 'तृष्णा छेत्तु शरीरिणाम् । सत्तीर्था यत्र विद्यन्ते नद्यो विद्या इवामलाः॥१२॥ शान्तिनाथ भगवान् का जो पुराण पहले अतिशय बुद्धिमान् महात्माओं के द्वारा कहा गया था वह मेरे द्वारा यथाशक्ति कहा जायगा ।।४।। जब कि सर्वज्ञ का भी वचन अभव्यजीवों के लिये नहीं रुचता है तब प्रज्ञान से पीड़ित दूसरा कोन मनुष्य सवमनोहारी वचन कह सकता है? अर्थात कोई नहीं ।।५।। मेरे द्वारा यह पुराण न तो कवित्व के अभिमान से कहा जा रहा है और न समय व्यतीत करने के लिये । किन्तु शान्ति जिनेन्द्र की भक्ति से नम्रीभूत चित्त के द्वारा कहा जा रहा है ॥६॥ अथानन्तर समस्त द्वीपों के मध्य में स्थित होने पर भी जो अपनी शोभा से सब द्वीपों के ऊपर स्थित हुना सा जान पड़ता है, ऐसा जम्बूद्वीप है ॥७।। उस जम्बूद्वीप में सीता नदी के दक्षिण तट पर स्थित एक वत्सकावती नामका देश है जो पूर्व विदेहों का अपूर्व तिलक है ।।८।। जिस देश में वक्ष और सत्पुरुष समानरूप से सुशोभित होते हैं क्योंकि जिसप्रकार वृक्ष अन्तराद्र-भीतर से प्रार्द्र-गीले होते हैं उसीप्रकार सत्पुरुष भी अन्तरार्द्र-भीतर से दयालु थे। जिस प्रकार वृक्ष सुमनःस्थितिशालीफूलों की स्थिति से सुशोभित होते हैं उसी प्रकार सत्पुरुष भी सुमनःस्थितिशाली--विद्वानों की स्थिति से सुशोभित थे और जिसप्रकार वृक्ष अपने फलों से इच्छुक जनों को संतुष्ट करते हैं उसी प्रकार सत्पुरुष भी अपने कार्यों से इच्छुक जनों को संतुष्ट करते थे ।।९।। जिस देशके वन में तटपर उत्पन्न हुई लताएं प्रतिबिम्ब के बहाने ऐसी दिखाई देती हैं मानों दावानलके भय से सरोवरों की शरण में प्रविष्ट हुई हों ।।१०।। जहाँ नाना रत्नों की किरणों से व्याप्त वन की भूमि सैंकड़ों इन्द्रधनुषों से व्याप्त वर्षाकालीन मेघ की शोभा को धारण करती है ।।११॥ जिस देश में विद्याओं के समान निर्मल नदियाँ विद्यमान हैं क्योंकि जिस प्रकार विद्याएं अपने पाप में प्रविष्ट-अपनी साधना करने वाले प्राणियों की तृष्णा-पाकांक्षा को नष्ट करने में समर्थ होती हैं उसी प्रकार नदियां भी अपने भीतर प्रवेश करने वाले प्राणियों को तृष्णा-प्यास को नष्ट करने में समर्थ थीं और जिसप्रकार विद्याएँ सत्तोर्थ--समीचीन - १. देश। २. अभ्यन्तरं जलीयभागेन क्लिन्ना: पझे अन्तःकरणे सकरुणा: । ३. पुष्पस्थितिशोभिन: पक्षे विद्वन्मर्यादाणोभिन: । ४. स्वफल: जम्बुजम्बीरादिभिः पक्षे स्वकार्य: प्रीणिता: तृप्तीकृता अधिनो यैस्तथाभूताः । ५ वर्षाकालसम्बन्धिमेघशोभाम् । ६ पिपासामू पक्षे आशाम् । ७. समीचीनजलावतारसहिता: पक्षे सद्गुरुयुक्ताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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