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________________ श्रियं समग्रलोकानां 'पाथिमीमनपायिनीम् । बिभ्रतेऽपि नमस्तुभ्यं वीतरागाय शान्तये ॥१॥ प्रशेषभव्य सत्त्वानां संसारावतारणम् । मक्त्या रत्नत्रयं नौमि विमुक्तिसुखकारणम् ॥२॥ लीलोत्तीर्णाखिलामेयविपुलज्ञेयसागरान् । इन्द्राययन्यतीन्वन्दे शुद्धान्गरगधराविकान् ॥३॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः श्रीमदसग महाकविविरचितम् श्रीशान्तिनाथपुराणम् १ जो समस्त लोकों की रक्षक तथा अविनाशी लक्ष्मी को धारण करने वाले होकर भी वीतराग हैं- रक्षा सम्बंधी राग से रहित हैं ऐसे आप शान्ति जिनेन्द्र के लिये नमस्कार हो ||१|| जो समस्त भव्यजीवों को संसार समुद्र से तारने वाला है तथा मोक्षसुख का कारण है उस रत्नत्रय की मैं भक्ति द्वारा स्तुति करता हूँ ||२|| जिन्होंने समस्त अपरिमित विस्तृत ज्ञेय रूपी समुद्र को लीला पूर्वक पार कर लिया है, जो इन्द्रों के द्वारा पूज्य हैं, तथा शुद्ध हैं ऐसे गणधरादिक मुनियों को नमस्कार करता हूँ ||३|| * मंगलाचरण * भवदुःखदावानलदलन को जो सजल वारिद हुए, जो मोहविभ्रमयामिनी के दमन को दिनकर हुए । समता सुधा की सरस वर्षा के लिये जो राशि हुए, जयवंत हों जग में सदा वे शान्ति, सुख देते हुए || Jain Education International शान्तं शान्तिजिनं नत्वाऽसगेन कविनाकृतम् । टिप्पणीभिर्युतं कुर्वे पुराणं शान्तिपूर्वकम् ॥ १॥ १. रक्षिणीम् । २. अपायरहिताम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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