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घनरथ के जींव अहमिन्द्र ने सर्वार्थसिद्धि से चयकर रानी ऐश के गर्भ में प्रवेश किया । इन्द्र ने गर्भ कल्याणक का उत्सव किया ।
तदनन्तर ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में प्रातः काल शान्ति- ५१-२०५ । १७८ - १९० नाथ भगवान् का जन्म हुआ । इन्द्रों के आसन कंपायमान हुए । अवधिज्ञान से शान्तिजिनेन्द्र का जन्म जानकर वे चतुरिंकाय के देवों के साथ जन्म कल्याण महोत्सव के लिये हस्तिनापुर आये । इसी संदर्भ में देवों के आगमन का वर्णन । इन्द्र ने तीन प्रदक्षिणाएं देकर राजभवन में प्रवेश किया । इन्द्रारणी प्रसूतिका गृह में माता के पास मायामय बालक सुला कर जिन बालक को ले आयी । इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर विराजमान कर पाण्डुक शिला पर ले गया। वहां उनका जन्माभिषेक हुआ । इन्द्राणी ने वस्त्राभूषरण पहिनाये । देव सेना के नगर में वापिस होने पर बड़ा उत्सव हुआ । जिन बालक की उत्कृष्ट विभूति देख कर सब प्रसन्न हुए । जन्मकल्याणक का उत्सव समाप्त कर देव लोग यथा स्थान चले गये ।
चतुर्दशसर्ग
शान्तिनाथ जिनेन्द्र का बाल्यकाल प्रभावना पूर्णरीति से बीतने लगा । तदनन्तर दृढरथ का जीव भी सर्वार्थ सिद्धि से चय कर इन्हीं राजा विश्वसेन की दूसरी स्त्री यशस्वती के चक्रायुध नामका पुत्र हुआ । दोनों भाइयों में प्रगाढ़ स्नेह था । पच्चीस हजार वर्ष का कुमार काल व्यतीत होने पर राजा विश्वसेन ने शान्तिनाथ को राज्यलक्ष्मी का शासक बनाया । वे नीतिपूर्वक राज्यशासन करने लगे । देवोपनीत भोगों का उपभोग करते हुए उनके पच्चीस हजार वर्ष बीत गये ।
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तदनन्तर एक दिन शान्ति जिनेन्द्र राजसभा में विराजमान थे। उसी २० - २०९ । १४४-२१३ समय शस्त्रों के अध्यक्ष ने आयुधशाला में चक्ररत्न के प्रकट होने का समाचार कहा । इसी संदर्भ में चक्ररत्न की दिव्यता का साहित्यिक वर्णन आयुधशाला के अध्यक्ष ने किया । शान्ति जिनेन्द्र ने नियोगानुमार चक्ररत्न की पूजा की । देवों ने प्रकाश में प्रकट होकर शान्ति
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