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( ३७ ) एक बार रानी प्रिय मित्रा के अन्तःपुर में दो सुन्दर स्त्रियोंने भेंट भेजकर ८५-१२७ । १५९-१६२
प्रार्थना की कि हम लोग आपकी सुन्दरता देखने के लिये आई हैं। प्रिय मित्रा ने कहलाया कि मैं स्नान से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहिनकर आती हूं तब तक प्रेक्षागृह में बैठे। आज्ञानुसार स्त्रियां बैठ गई। जब प्रियमित्रा उनके समक्ष आई तब उन स्त्रियों ने कहा कि आपकी वह सुन्दरता अब नहीं दिखाई देती जिसे हम लोगों ने पहले देखा था। रूपहास की बात सनकर रानी प्रियमित्रा को आश्चर्य हुआ। उसने यह घटना राजसभा में राजा मेघरथ को सुनायी । राजा ने रानी की ओर देखकर मानव शरीर की अस्थिरता का वर्णन किया और स्वय संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया । नन्दिवर्धन पुत्र को राज्य देकर वे अनेक राजाओं के साथ साधु हो गये। प्रियमित्रा रानी भी सुव्रता
आर्यिका के पास दीक्षा लेकर प्रायिका बन गई। मुनिराज घनरथ की तपस्या का वर्णन । मुनिराज घनरथ ने दर्शन विशुद्धि १२८-१७०।१६२-१६७
आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और अन्त में एक मास का प्रायोपगमन संन्यास धारण कर सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। राजा धनरथ के भाई दृढ़रथ भी तपस्या कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए ।
त्रयोदश सर्ग जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र में कुरु देश है उसकी शोभा निराली है। उसी में १-२० । १६८-१७१
हस्तिनापुर नामका नगर है । हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन थे और उनकी रानी का नाम ऐरा था। २१-८० । १.१-१८
राजा विश्वसेन नीतिज्ञ शासक थे। उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी थी। धनरथ का जीव-सर्वार्थसिद्धि का अहमिन्द्र जब पृथिवी पर पाने के लिये उद्यत हुआ तब हस्तिनापुर में छहमाह पूर्व से ही देवकृतरत्नवर्षा होने लगी। इन्द्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियां ऐरा माता की सेवा करने लगी। माता ऐरा ने सोलह स्वप्न देखे । राजा विश्वसेन ने उनका फल बताते हुए कहा कि तुम्हारे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न हो गया। भाद्रमास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को
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