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________________ २५५ षोडशः सर्गः तस्मिन् गिरी सकललोकललामभूते भूतेषु सग्मुनिनिवेशितधर्मसारः । त्यक्त्वा सभामथ स मामयपुण्यमूर्तिरध्यात्ममास्त सकलात्मविभूति मासम् ॥२३८।। शार्दूलविक्रीडितम् ज्येष्ठे श्रेष्ठगुणः प्रदोषसमये कृष्णे व्यतीते चतु दश्यां शीत 'गमस्तिमालिनि गते योगं मरण्या समम् । व्युत्सर्गेण निरस्य कर्म समिति शेषामशेषक्रियः शान्तिः शान्ततया परं पदमगात्सैद्ध प्रसिद्ध श्रिया ।।२३।। गीरिणैर्वरिवस्यया गिरिवरः प्रापे स शक्रादिभि . मूतौ तत्क्षणरम्यता क्षणरुचेः संप्राप्तवत्या विभोः । अग्नीन्द्रा मुकुटप्रभानलशिखाज्यालारुणाम्भोरुहै रानच्चु विरचय्य तत्प्रतिनिधि सत्सम्पबा सिद्धये ॥२४०॥ इत्यसगकृतौ शान्तिपुराने भगवतो निर्वाणगमनो नाम * षोडशः सर्ग: * व्याप्त था ऐसा सम्मेदाचल प्राप्त किया ।।२३७।। तदनन्तर जिन्होंने प्राणि समूह के बीच समीचीन मुनियों में धर्म का सार अच्छी तरह से स्थापित किया था तथा जिनका पवित्र शरीर कान्ति से तन्मय था ऐसे शान्तिप्रभु समस्त संसार के आभरणस्वरूप उस सम्मेदाचल पर समवसरण सभा को छोड़कर एक मास तक सम्पूर्ण प्रात्मवैभव सहित अपनी आत्मा में लीन होकर विराजमान हुए अर्थात् उन्होंने एक मास का योग निरोध किया ।।२३८।। तदनन्तर श्रेष्ठ गुणों से सहित कृतकृत्य शान्तिजिनेन्द्र ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रदोष समय के व्यतीत होने पर जब कि चन्द्रमा भरणी नक्षत्र के साथ योग को प्राप्त था, व्युत्सर्गतप-योग निरोध के द्वारा समस्त कर्मसमूह का क्षय कर शान्तभाव से लक्ष्मी द्वारा प्रसिद्ध उत्कृष्ट सिद्ध पद प्राप्त किया ॥२३६॥ इन्द्रादिक देव निर्वाणकल्याणक की पूजा के लिये उस श्रेष्ठपर्वत-सम्मेदाचल पर पाये। यद्यपि भगवान् का शरीर बिजली की तत्काल सम्बन्धी रम्यता को प्राप्त हो गया- बिजली के समान तत्काल विलीन हो गया था तथापि अग्निकुमार देवों के इन्द्रों ने उनके शरीर का प्रतिनिधि बनाकर समीचीन सम्पदाओं की सिद्धि के लिये मुकुटों से निर्गत देदीप्यमान अग्नि शिखा की ज्वालारूप लाल कमलों के द्वारा उसकी पूजा की ।।२४०।।। इसप्रकार महाकवि असग द्वारा विरचित शान्तिपुराणमें भगवान् शान्तिनाथ के निर्वाण कल्याणक का वर्णन करने वाला सोलहवां सर्ग समाप्त हुआ ।।१६।। - १ चन्द्रमसि २ कर्म समूहम् पूजया ४ विद्य तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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