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________________ २५६ श्रीशान्तिनाथपुराणम् कविप्रशस्तिपद्यानि मालिनी मुनिचरणरजोमिः सर्वदा भूतधात्र्यां प्रणतिसमयलग्नः पावनीभूतमूर्धा । उपशम इव मूर्तः शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥१॥ तनुमपि तनुतां यः सर्वपर्वोपवासस्तनुमनुपमधीः स्म प्रापयन् संचिनोति। सततमपि विभूति भूयसीमन्नदानप्रभृतिभिरुरुपुण्यं कुन्दशुभ्र यशश्च ॥२॥ . वसन्ततिलका भक्तिं परामविरतं समपक्षपातादातन्वती मुनिनिकायचतुष्टयेऽपि । वैरेतिरित्यनुपमा भुवि तस्य भार्या सम्यक्त्वशुद्धिरिव मूतिमती पराभूत् ।।३।। पुत्रस्तयोरसा इत्यवदातकोयोरासोन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः। चन्द्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनन्धाचार्यस्य शब्दसमयार्णवपारगस्य ॥४॥ उपजाति तस्याभवण्यजनस्य सेव्यः सखा जिनापो जिनधर्मसक्तः । ख्यातोऽपि शौर्यात्परलोकभीरुद्विजाधि'नायोऽपि विपक्षपाता ॥५॥ कवि प्रशस्ति पृथिवीतल पर झुककर नमस्कार करते समय लगी हुयी मुनियों की चरणरज से जिसका मस्तक सदा पवित्र रहता था, जो मूर्तिधारी उपशमभाव के समान जान पड़ता था और शुद्धसम्यग्दर्शन से सहित था ऐसा पटुमति इस नाम से प्रसिद्ध एक श्रावक था ।।१।। जो समस्त पर्यों के दिन सैकड़ों उपवासों के द्वारा अपने कृश शरीर को और भी अधिक कृशता को प्राप्त करा रहा था ऐसा वह अनुपम बुद्धिमान् पटुमति सदा आहारदान आदि के द्वारा विपुल विभूति, विशाल पुण्य और कून्द के फूल के समान शुक्ल यश का संचय करता था ॥२॥ उसकी वैरा नामकी स्त्री थी जो मुनियों के चतुर्विध संघ में सदा समान स्नेह से युक्त भक्ति को विस्तृत करती थी और पृथिवी पर उत्कृष्ट मूर्तिमती सम्यक्त्व की शुद्धि के समान जान पड़ती थी ।।३।। निर्मल कीति से युक्त उन दोनों के प्रसग नामका पुत्र हुआ जो विद्वत् समूह में प्रमुख, चन्द्रमा की किरणों के समान शुक्ल यश से सहित तथा व्याकरण शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी नागनन्दी प्राचार्य का शिष्य हुआ ॥४॥ उस असग का एक जिनाप नामका मित्र था जो भव्यजनों के द्वारा सेवनीय था, जिनधर्म में लीन था, पराक्रम से प्रसिद्ध होने पर भी परलोक-शत्रुसमूह (पक्ष में नरकादि परलोक ) से डरता १ पक्षिराजोऽपि पक्षे द्विजातीनां ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानां नाथोऽपि २ पक्षपातरहितः गरुत्संचाररहितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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