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भीशांतिनाथपुराणम्
अनुष्टुप् । तत्प्रतापयशोराशी मूर्ताविध मनोरमौ । धर्मचक्र पुरोषाय पुष्पदन्तावगच्छत म् ॥२३२॥
उपजातिः पुरःसरा धूपघटान्वहन्तो वैश्वानरा विश्वसृजो विरेजुः । फणामणिस्फारमरीचिदीपैरदीपि मार्गः फणिनां गणेन ।।२३३॥
____ वसन्ततिलका लाजाञ्जलीविचिकितः परितो दिगन्तं दिक्कन्यका: सुललितं प्रमवाल्ललन्त्यः ।
दिव्याङ्गनाधनकुचांशुकपल्लवानां घोता वो सुरभयन्भुवनं समीरः ॥२३४॥ होनेन्द्रियैरपि जनैः समवापि सद्यः स्पष्टेन्द्रियत्वमषनरच परा समृद्धिः। बके परस्परविरोधिभिरप्यजयः व्यागजिनपतमहिना अचिन्त्या ॥२३॥
उत्पलमालभारिणी परिबोषयितु चिराय मव्यान्विनहारेति विभुः स भूरिभूत्या। अयुतद्वयवत्सरान्सशेषांस्तपसा प्राग्गतषोडशाब्दयुक्तान् ।।२३६।।
वसन्ततिलका निर्वाणमीयुरजितप्रमुखा जिनेन्द्रा यस्मिन् स तेन जनितानतसम्मदेन ।
सम्मेद इत्यभिहितः प्रभुणापि शैल: 'शैलेयनसुविशालशिलावितानः ।।२३७।।
जो भगवान् के मूर्त प्रताप और यश की राशि के समान थे ऐसे सूर्य और चन्द्रमा धर्म चक्र को आगे कर चल रहे थे ॥२३२॥ जो धूपघटों को धारण कर भगवान् के आगे आगे चल रहे थे ऐसे अग्नि कुमार देव सुशोभित हो रहे थे तथा नागकुमार देवों के समूह द्वारा वह मार्ग फणामणियों की देदीप्यमान किरण रूपी दीपकों से प्रकाशित किया जा रहा था ॥२३३।। हर्ष से सुन्दरता पूर्वक चलती हयीं दिक्कन्याएं दिशाओं के चारों ओर लाई की अञ्जलियां बिखेर रही थीं और देवाङ्गनाओं के स्थलस्तन वस्त्र के अञ्चलों को कंपित करने वाला पवन संसार को सुगन्धित करता हुआ बह रहा था
२३४।। हीन इन्द्रिय वाले मनुष्यों ने भी शीघ्र ही पूर्णेन्द्रियपना प्राप्त किया था, निर्धन मनुष्यों ने उत्कृष्ट सम्पति प्राप्त की थी, और परस्पर विरोधी मांसभोजी-हिंसकजीवों के समूह ने मित्रता की थी। यह ठीक ही है क्योंकि जिनेन्द्र की महिमा अचिन्त्य थी ॥२३५।। इस प्रकार उन शान्ति विभु ने तपश्चरण के सोलह वर्ष सहित कुछ कम बीस हजार वर्षों तक भव्यजीवों को संबोधित करने के लिये बड़े वैभव के साथ चिरकाल तक विहार किया ॥२३६।। - अन्त में नम्रीभूतजनों को हर्ष उत्पन्न करने वाले शान्तिनाथ जिनेन्द्र ने जहां अजितनाथ आदि तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया था तथा जहां की बड़ी बड़ी शिलाओं का समूह शिलाजीत से
१ चन्द्रसूयौं २ भगवतः ३ कम्पयिता ४ संगतम् ५ प्राप्त: ६ शिलाजतुः ।
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