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श्री शान्तिनाथपुराणम्
निर्जरायास्तपो हेतुर्मोक्षः पूर्वोक्तलक्षणः । शक्रायेति निवेद्य तो व्यरंसीता ॥ १६३॥
उपजाति:
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तो हितार्थ जगतt बिहारे प्रावर्ततासौ 'विगताभिसन्धिः ।
'निरस्याक्रमते विवस्वांस्तमित्र राशि स हि तत्स्वभावः ॥ १६४ ॥ प्रानम्बभारामतभव्यराशीन्वो महीं तत्क्षणमक्षमेव ।
चचाल जिंगोरथवाप्रमाणां विहक्षमाणेव महामहद्धिम् ॥१६५॥ वृचैव वैयाकरणा वदन्ति संरक्षणान्मां धमदं धनानाम् ।
तम्मरसरेणेव तदा समन्ताद्धनानि लोके धनदो व्यतारीत् ॥ १९६ ॥ प्रादुर्बभूवे त्रिदशैरशेषैरापादयद्भिः सकलामकाण्डे ।
प्रणामपर्यस्तकिरीटमामि। सौदामिमोदाममयोमिव द्याम् ।। १६७ ।। चतुर्णिकार्यरमनिकीरण विश्वंभरानूरिति सायंकाऽभूत् ।
"बालोकशब्दस्तदुदीर्यमारदः प्रादण्वनद्दिग्वलयानि मन्द्रः ।। १६८ ।। स्वेनावरोधेन तदा समेतं भक्त्या स्वहस्तोद्ध तमङ्गलेन । तत्काल योग्यामल वेषभावं ससंभ्रमं
राजक माजगाम ॥ १६६॥
का हेतु तप है और मोक्ष का लक्षण पहले कहा जा चुका है इस प्रकार इन्द्र के लिये यथार्थ धर्म का उपदेश देकर वे शान्ति जिनेन्द्र विरत हो गये - रुक गये ।। १६३॥
तदनन्तर इच्छा से रहित शान्ति जिनेन्द्र जगत् के हित के लिये विहार में प्रवृत्त हुये । यह ठीक ही है क्योंकि सूर्य किरणों के द्वारा अन्धकार के समूह को नष्ट कर जो उदित होता है उसका वह स्वभाव ही है ।। १६४ ।। उस समय पृथिवी आनन्द के भार से नम्रीभुत भव्य जीवों के समूह को धारण करने के लिये मानों असमर्थ हो गयी थी अथवा जिनेन्द्र देव की अपरिमित महाप्रभाव रूपी संपदा को मानों देखना चाहती थी इसलिये चञ्चल हो उठी थी ।। १६५ ।। धन का संरक्षण करने से वैयाकरण मुझे व्यर्थ ही धनद कहते हैं सच्चे धनद तो ये शान्ति जिनेन्द्र हैं इसप्रकार उनके मात्सर्य से ही मानों धनद — कुबेर लोक में सब ओर धन का वितरण कर रहा था ।। १६६ ।। प्ररणाम से नम्रीभूत मुकुटों की प्रभा से जो समस्त प्रकाश को असमय में बिजली रूपी मालाओं से तन्मयता को प्राप्त करा रहे थे ऐसे समस्त देव प्रकट हो गये ।। १६७ ।। चतुरिंगकाय के देवों से व्याप्त पृथिवी उससमय 'विश्वम्भरा' - सब को धारण करने वाली इस सार्थक नाम से युक्त हो गयी थी। उन देवों के द्वारा उच्चारण किये हुए जोरदार जय जय कार के शब्द ने समस्त दिशाओं को शब्दायमान कर दिया था ।। १६८ ।। उससमय भक्ति पूर्वक अपने हाथ से मङ्गल द्रव्यों को धारण करने वाली अपनी स्त्रियों से जो सहित था तथा उस समय के योग्य निर्मल वेष आदि भाव से युक्त था ऐसा राजाओं का समूह संभ्रत सहित श्रा रहा था ।।१६६॥ त्रिलोकीनाथ शान्ति जिनेन्द्र के चारों ओर लोगों को हटाने के लिये जितेन्द्रिय
१ विगतस्पृहः
२ किरण: ३ सूर्य ४ ध्वान्तसमूह ५ जयशब्दः ।
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