SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडशः सर्गः लोकेश्वरं तं परितोऽपि लोकांनिन्द्रः समुत्सारथितुं जितात्मा । aterfरकत्वं प्रतिपद्य संस्थावुल्लासयन्वेत्रलता सलीलम् ॥ २००॥ श्रलक्ष्यतादर्शतलोपमाना दिव्या मही 'कामदुधा प्रजानाम् । प्रतीतमप्युत्तम भोगमूत्वं महिम्नैव पुनर्दधाना ॥ २०१ ।। तारापथासौमनस पतन्तीं दृष्टि विलोक्येव समन्ततोऽपि । निरामयं निर्गतवेरबन्धं जगत्समस्तं सुमनायते स्म ॥ २०२ ॥ पूर्वेतरे द्वे भवतः स्म पंक्ती प्रोत्फुल्लहेमाब्ज सहत्रयोयें । तभ्मध्यभाक्वादसहस्रपद्मः सूयोषितः कण्ठगुरणायमानम् ॥२०३॥ daierमानंद्य तपधराणमयं विचित्रोज्ज्वलरत्नचित्रम् । ३२ : संभावितानम्बवशेन नृत्यत्पद्माभिरूढप्रतिपत्रभागम् ॥२०४॥ कुतूहल क्षिप्तसुरेश्वरास नेनालिर्वृन्देन निषेव्यमाणम् । रक्सौर मामोदित सर्वधिवकं विवः पृथिव्योस्तिलकायमानम् ।।२०५ ।। समन्ततो योजनविस्तृतं यत्तत्करिणका तच्चतुरंशमात्रा । प्रथाविरासीदिति पद्मयुग्यं तस्यैव योग्यं दिवि पद्मयोनेः ॥ २०६ ॥ Jain Education International इन्द्र द्वारपालपने को प्राप्त हो लीला पूर्वक छड़ी को घुमाता हुआ खड़ा था || २०० || दर्परगतल की उपमा से सहित, प्रजानों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली दिव्य भूमि उस समय ऐसी जान पड़ती थी प्रभु की महिमा से, बीते हुए उत्तम भोगभूमि को फिर से धारण कर रही हो || २०१ ।। श्राकाश - से सभी ओर पड़ती हुई सौमनसवृष्टि - पुष्पवृष्टि को देखकर ही मानों समस्त जगत् नीरोग और वैरबन्धसे रहित होता हुआ सुमन-पुष्प के समान आचरण कर रहा था ( पक्ष में प्रसन्न चित्त हो रहा था ) ||२२|| १ मनोरथप्रपूरिका २ सुमनसां पुष्पाणामियं सौमनसी । 3. तदनन्तर प्रकाश में खिले हुए हजारों सुवर्ण कमलों की जो आगे पीछे दो पंक्तियां थीं उनके बीच में वह पद्मयान प्रकट हुआ जो हजारों सुन्दर कमलों से सहित था, पृथिवी रूपी स्त्री के कण्ठहार के समान जान पड़ता था, देदीप्यमान कान्ति से युक्त था, पद्मराग मणियों से निर्मित था, नाना प्रकार के उज्ज्वल रत्नों से चित्र विचित्र था, जिसकी प्रत्येक कलिका पर हर्षवश नृत्य करती हुई लक्ष्मी रूढ थी, कुतूहल से युक्त इन्द्रों के नेत्र रूपी भ्रमर समूह से जो सेवित था, अपनी सुगन्ध से जिसने समस्त दिशाओं को सुगन्धित कर दिया था, जो आकाश और पृथिवी के अन्तराल में तिलक के समान जान पड़ता था, सब प्रोर एक योजन चौड़ा था, जिसकी करिणका पाव योजन प्रमारण थी, तथा जो उन शान्तिजिनेन्द्र के ही योग्य था ।। २०३–२०६।। - २४६ For Private & Personal Use Only (कलापकम् ) www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy