SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीशांतिनाथपुराणम् यत्पृथक्त्ववितकं तत्पूर्व सुलमुदाहृतम् । अषकत्ववितकं च द्वितीयमवसीयताम् ॥१७॥ तृतीयं च तथा सूक्ष्मक्रियासु प्रतिपातनात् । नाम्ना सूक्ष्मक्रियापूर्व प्रतिपातीति कथ्यते ॥१७॥ तुरीयं च समुच्छिन्नक्रियासु प्रतिपातनात । समुच्छिन्नक्रियापूर्व प्रतिपाति तथाल्यया ॥१७॥ त्रियोगस्य भवेत्पूर्वमेकयोगस्य चापरम् । तृतीयं काययोगस्य तुयं विद्यारयोगिनः ॥१७६।। व्यक्तमेकाश्रये पूर्व ध्याने ध्यानरतात्मनि । तथा वितकवीचारसंयुते चाभिकष्यते ॥१७७॥ प्रवीचारं द्वितीयं स्याद्वितर्कः श्रुतमुच्यते । अर्थव्यखनयोगानां बोचारः परिवर्तनम् ॥१७॥ द्रव्यं स्यात्पर्ययो वार्थो व्यखनं वचनं तथा । योगोऽङ्गवाङ्मनःस्पन्दः संक्रान्तिः परिवर्तनम् ।।१७६॥ वृत्तगुप्त्याविसंयुक्तः संसारविनिवृत्तये । प्रक्रमेत यतिातुमिति कायाविकां स्थितिम् ॥१०॥ द्रव्याणुमथवा ध्यायन्मावाणु वा समाहितः। गच्छन्वितर्कसामथ्यंमथार्थव्यञ्जने तथा ॥११॥ शरीरवचसी वापि पृथक्त्वेनामिगच्छता । मनसा कुण्ठशस्त्रेण छिन्वन्निव महातरुम् ॥१८२।। प्रथोपशमयन्मोहप्रकृतीः क्षपयन् शनैः । यतिायन्भवेदेवं स पृथक्त्ववितर्कभाक् ॥१८३।। गया है और जो एकत्व वितर्क है उसे दूसरा शुक्लध्यान जानना चाहिए ॥१७३॥ सूक्ष्म क्रियाओं में प्रतिपातन से जो होता है-कामयोग की अत्यन्त सूक्ष्म परिणति रह जाने पर जो होता है वह सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान कहलाता है ।।१७४।। और समुच्छिन्न क्रियाओं में प्रतिपातन से-योग जन्य परिष्पन्द के सर्वथा नष्ट हो जाने से जो होता है वह समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति नामका चौथा शुक्लध्यान कहा जाता है ।।१७५।। पहला भेद तीन योग वालों के होता है, दूसरा भेद तीन में से किसी एक योग वाले के होता है, तीसरा भेद काययोग वाले के होता है और चौथा भेद प्रयोग केवली के होता है ॥१७६।। जिसकी आत्मा ध्यान में लीन है ऐसे मुनि के पहले के दो ध्यानपृथक्त्व वितर्क वीचार तथा एकत्व वितर्क होते हैं ये दोनों ध्यान स्पष्ट ही एक आश्रय से होते हैं और वितर्क तथा वीचार से सहित रहते हैं। परन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार से रहित होता है। वितर्क श्रुत कहलाता है। अर्थ, व्यञ्जन और योगों में जो परिवर्तन होता है वह वीचार कहलाता है ।।१७७-१७८।। द्रव्य और पर्याय अर्थ कहलाता है, व्यञ्जन वचन को कहते हैं, काय वचन और मन का जो परिष्पन्द है वह योग कहलाता है और संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है ।।१७६।। चारित्र तथा गुप्ति आदि से संयुक्त मुनि को संसार को निवृत्ति के लिए शरीरादि की स्थिति का ध्यान करने का यत्न करना चाहिए ॥१८०॥ तदनन्तर जो समाहित-ध्यान योग्य मुद्रा से बैठकर द्रव्याण अथवा भावाणु का ध्यान करता हुआ वितर्क - श्रुत की सामर्थ्य को प्राप्त होता है और द्रव्य अथवा पर्याय अथवा शरीर और वचन योग को पृथक रूप से प्राप्त होने वाले मन के द्वारा कुण्टित शस्त्र से महावृक्ष के समान मोहकर्म की प्रकृतियों का जो धीरे धीरे उपशमन अथवा क्षपण करता है इस प्रकार ध्यान करने वाला वह मुनि पृथक्त्व वितर्क नामक शुक्लध्यान को धारण करने वाला होता है । भावार्थइस ध्यान में मोहजन्य इच्छा का अभाव हो जाने से अर्थ व्यञ्जन और योगों की संक्रान्ति - परिवर्तन का अभाव हो जाता है इसलिए जिस योग से आगम के जिस वाक्य या पद का ध्यान शुरू करता है उसी पर अन्तर्मुहूर्त तक रुकता है। यहां ध्यान करने वाला मुनि पर्याप्त बल तथा उत्साह से रहित होता है इसलिए जिस प्रकार कोई मनुष्य मोथले शस्त्र के द्वारा किसी बड़े वृक्ष को बहुत काल में छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy