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षोडशः सर्ग:
२४५ प्रत्यक्तदेशविरतप्रमत्तास्तत्प्रयोजकाः । चत्वारोऽत्यक्त शब्दोषता मिथ्यादृष्टपादयस्तथा ॥१६५।। हिसामृषोखंचौर्शर्वरक्षणेभ्यः प्रसूयते । रौद्रध्यानं च तस्येशावयत्तश्रावको मतौ ॥१६६।। प्राज्ञापायौ विपाकश्च लोकसंस्थानमित्यपि । एतेषां विचयेनोक्तं धर्मध्यानं चतुषिधम् ।।१६७।। सौक्षम्यासमस्तभावानां स्वजाड्याच्च यथागमम् । सम्यचिन्तानिरोधश्च तत्राज्ञाविचयो भवेत् ।।१६।। सन्मार्गमनवाप्यते वत ताम्यन्ति दुई शः । अपायविचयोऽप्येवं सन्मार्गापायचिन्तनम् ॥१६६।। ईदृशः कर्मणामेर्षा परिपाकोऽतिदुःसहः । एवं विपाकविचयो विपाकपरिचिन्तनम् ।।१७०।। जगदूर्ध्वमपस्तिर्यक् चैवमेतद्वयवस्थितम् । इति चिन्तानिरोधो यः स लोकविचयः स्मृतः ॥१७१॥ प्राद्य. पूर्वविदः स्याता शुक्ले केवलिनः परे । श्रेण्यधिरोहणाद्धम्यं प्राक्ततः शुक्लमिष्यते ।।१७२।।
वेदना-पीड़ा सहित मनुष्य का उस पीड़ा को दूर करने के लिए बार बार उपयोग जाना वेदनाजन्य आर्त्तध्यान है और आगामी भोगों की इच्छा होना निदान नामका आर्तध्यान है। इस प्रकार विद्वानों ने पार्त्तध्यान के चार भेद कहे हैं ॥१६४।। अत्यक्त, देशविरत और प्रमत्त संयत गुणस्थानवी जीव आर्तध्यान के प्रयोजक हैं। मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानवी जीव प्रत्यक्त शब्द से कहे गये हैं ॥१६५।।
हिंसा, असत्यभाषण, चौर्य और परिग्रह के संरक्षण से जो ध्यान उत्पन्न होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है । इस रौद्रध्यान के स्वामी प्रत्यक्त---प्रारम्भ को चार गुणस्थानों में रहने वाले जीव तथा श्रावक-पञ्चम गुणस्थानवर्ती जीव माने गये हैं ।।१६६।।।
आज्ञा, उपाय, विपाक और लोक संस्थान इनके विचय से जो ध्यान होता है वह चार प्रकार का धर्म्यध्यान कहा गया है ।।१६७।। समस्त पदार्थों की सूक्ष्मता और अपनी जडता-अज्ञान दशा से पागम के अनुसार सम्यक प्रकार से चिन्ता का निरोध होना प्राज्ञा विचय धर्म्यध्यान है । भावार्थपदार्थ सूक्ष्म हों और अपनी अज्ञान दशा हो तब आगम में जो कहा है वह ठीक है ऐसा चिन्तवन करना प्राज्ञाविचय नामका धर्म्यध्यान है ।।१६८।। खेद है कि ये मिथ्यादृष्टि जीव सन्मार्ग को न पाकर दुखी हो रहे हैं इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तन करना अपाय विचय नामका धर्म्यध्यान है ॥१६६।। इन कर्मों का ऐसा परिपाक अत्यन्त दुःसह है इसप्रकार विपाक-कर्मोदय का विचार करना विपाक विचय नामका धर्माध्यान है ।।१७०।। यह जगत् ऊपर नीचे और समान धरातलपर इस प्रकार व्यवस्थित है ऐसा चिन्ता का जो निरोध करना है वह लोक विचय-संस्थान विचय नामका धर्म्यध्यान माना गया है ।।१७१।।
शुक्लध्यान के चार भेद हैं उनमें आदि के दो भेद पूर्व विद्-पूर्वो के ज्ञाता मुनि के होते हैं और अन्त के दो भेद केवली के होते हैं। श्रेणी चढ़ने के पूर्व धर्म्यध्यान होता है और उसके बाद शुक्लध्यान माना जाता है । भावार्थ-कहीं कषाय का सद्भाव रहने से दशवें गूणस्थान तक धर्म्य ध्यान और उसके बाद शुक्लव्यान माना गया है ।।१७२।। जो पृथक्त्व वितर्क है वह पहला शुक्लध्यान कहा
१ अविरत ।
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