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श्री शान्तिनाथपुराणम्
क्षेत्रकालादि संशुद्धिमङ्गीकृत्य
स्वयेनाथवा वाचा साधु द्रव्यान्तरेण वा । तें प्रतिक्रियामायावृत्त्यं मनीषिणः ।।१५४॥ तच्चाचार्यादिविषयभेदाद् दशविधं भवेत्। विचिकित्सा 'विनाशार्थं, भावनीयं भवच्छिदे १५५ ।। ग्रन्थार्थीभयदानं स्याद्बाचना पृच्छना तथा । परस्परातुयोगो हि संशयच्छेवनाय च ॥११.५.६ । । अभ्यास निश्चितार्थस्य मानसे च मुहुर्मुहुः । अनुप्रेक्षेत्यनुप्रेक्षाप्रसृतं रभिश्रीयते ।। १५७।। परिवर्तन घोषशुद्धघावसीयते । यथोचितम् || १५८ ।। भवेद्धर्मकथादीनामनुष्ठानं समन्ततः । धर्मोपदेश इत्येवं स्वाध्याय: पश्वधोदितः ।।१५६ ।। सबाह्याभ्यन्तरोपध्योस्त्यागो व्युत्सर्ग उच्यते । बाह्य क्षेत्रादि विज्ञेय कोपाद्याभ्यन्तरं तथा ॥ १६० ॥ उत्कृष्ट कायबन्धस्यः साधोरन्तर्मुहूर्तकम् । ध्यातमाहुरर्थकाप्रचिन्वारोध बुषोत्तमाः || १६१ ॥ श्रात्तं रौद्रश्व तद्धर्म्यं शुक्लं चेति चतुविधम् । संसृतेः कारणं पूर्वे स्यातां मुक्तेस्तथा परे ।। १६२ ।। अथ चतुविध विद्यावमनोज्ञ समाज़मे । स्मृतेस्तद्विप्रयोगाय समन्वाहारमुच्यते ॥ १६३॥ विपरीतं मनोज्ञस्य वेदनायाश्च सवतः । निदानं चेति विद्वद्भिरार्तमेवाः प्रकीर्तिताः ।। १६४ ।।
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अपने शरीर, वचन अथवा अन्य द्रव्य के द्वारा दुःखी जीव के दुःख का प्रतिकार करने को विद्वज्जन वैयावृत्त्य कहते हैं ।। १५४ । । वह वैयावृत्य प्राचार्य आदि विषय के भेद से दश प्रकार का होता है ग्लानि का निराकरण करने तथा संसार का छेद करने के लिए इस तप की निरन्तर भावना करना चाहिए ।। १५५।।
ग्रन्थ, अर्थ और दोनों का देना वाचना है । संशय का छेद करने के लिए परस्पर पूछना प्रच्छना है ।। १५६ ।। निर्णीत अर्थ का मन में बार बार अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है ऐसा अनुप्रेक्षा में संलग्न मुनियों के द्वारा कहा जाता है ।। १५७ ।। उच्चारण की शुद्धि पूर्वक पाठ करना आम्नाय कहलाता है क्षेत्र तथा कालादि की शुद्धि को लेकर धर्मकथा श्रादि का यथायोग्य सर्वत्र अनुष्टान करना - उपदेशादिक देना धर्मोपदेश कहलाता है । इस प्रकार यह पांच तरह का स्वाध्याय कहा गया है ।। १५८ - १५६।।
बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग कहलाता है । क्षेत्र ग्रादिक बाह्य परिग्रह और क्रोधादिक अन्तरङ्ग परिग्रह जानना चाहिए ।। १६०॥
उत्कृष्ट संहनन के धारक मुनि का अन्तर्मुहूर्त तक किसी एक पदार्थ में जो चिन्ता का निरोध होता है उसे श्रेष्ठ विद्वान् ध्यान कहते हैं ।। १६१ ।। वह ध्यान आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल इस तरह चार प्रकार का होता है। इनमें पहले के दो ध्यान-प्रार्त्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं तथा आगे के दो ध्यान -- धर्म्य और शुक्ल ध्यान मुक्ति के कारण हैं ।। १६२ ।। पहला प्रार्त्तध्यान चार प्रकार का जानना चाहिए। अनिष्ट पदार्थ का समागम होने पर उसे दूर करने के लिए स्मृति का बार बार उस ओर जाना अनिष्ट संयोगज प्रार्त्तध्यान कहलाता है ।। १६३ ।। इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए स्मृति का बार बार उस ओर जाना इ वियोगज प्रार्तध्यान है ।
१ ग्लानिनिराकरणार्थं २ आतं रौद्र
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३ धर्म्य शुक्ले ४ अनिष्ट समायोगे ।
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