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________________ २३२ श्रीशान्तिनाथपुराणम् यथोक्तं मोहतः कतु मार्गमावश्यकादिषु । श्रशक्तस्यान्यथाख्यानमाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ॥ २१ ॥ शाठ्यादिना 'गमोद्दिष्ट क्रियानिर्वृत्यनादरः । श्रनाकांक्षा क्रियेत्युक्ता निराकांक्षामलाशयैः ॥ २२ ॥ परेण क्रियमाणासु क्रियासुच्छेदनादिषु । प्रमोद: संयमस्थस्य सा प्रारम्भक्रिया मवेत् ॥ २३॥ परिग्रहग्रहासक्तेरविनाशार्थमुद्यमः 1 सा पारिग्राहिकीत्युक्ता क्रिया त्यक्तपरिग्रहैः ||२४|| स्यात्सम्यक्त्वावबोधादिक्रियासु निकृतिः सतः । मायाक्रियेति विज्ञेया माया' मयविर्वाजितैः ।।२५।। यथा साधु करोषीति परं दृढयति स्तवैः । मिथ्यात्वकारणाविष्ट सा मिथ्यादर्शनक्रिया || २६॥ सततं संयमोच्छेदिकर्मोदयवशात्सतः I श्रनिवृत्तिर्बु धेरित्यप्रत्याख्यानक्रियोच्यते ||२७|| तीव्रानुमयमन्दोत्थविज्ञाताज्ञातभावतः तथाधिकरणाद्वीर्यात्तद्विशेषोऽवगम्यते ॥ २८ ॥ तस्याधिकरणं सद्भिर्जीवाजीवाः प्रकीर्तिताः । श्राद्यस्याष्टशतं भेदा इति प्राहुर्मनीषिरणः ||२६|| हिंसादिषु समावेश: संरम्भ इति सूरिभिः । साघनानां समभ्यासः समारम्भोऽभिधीयते ॥३०॥ प्रारम्भः प्रक्रमः सम्यगेवमेते त्रयो मताः । कायवाङ मनसां स्पन्दो योगः स त्रिविधो भवेत् ॥ ३१ ॥ 1 जानना चाहिए || २० || आवश्यक आदि के विषय में मोह वश यथोक्त मार्ग को करने में असमर्थ मनुष्य का अन्यथा व्याख्यान करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ।। २१ ।। शठता आदि के कारण आगम प्रतिपादित क्रिया के करने में अनादर भाव का होना आकांक्षारूपी मल से रहित अभिप्राय वाले पुरुषों के द्वारा अनाकांक्षा क्रिया कही गयी है ||२२|| दूसरे के द्वारा की जाने वाली छेदन भेदनादि क्रियाओं में संयमी मनुष्य का हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है || २३ || परिग्रह रूपी पिशाच में प्रासक्ति रखने वाले पुरुष का परिग्रह का नाश न होने के लिये जो उद्यम है उसे परिग्रह के त्यागी पुरुषों ने पारिग्राहिकी क्रिया कहा है ||२४|| सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान आदि की क्रियाओं में सत् पुरुष की जो माया रूप प्रवृत्ति है उसे माया रूपी रोग से रहित पुरुषों को माया क्रिया जानना चाहिये ||२५|| मिथ्यात्व के कारणों से युक्त अन्य पुरुष को जो 'तुम अच्छा कर रहे हो' इस प्रकार के प्रशंसात्मक शब्दों द्वारा दृढ करता है उसका वह कार्य मिथ्यादर्शन किया है ||२६|| निरन्तर संयम का घात करने वाले कर्मों के उदय से सत्पुरुष का जो त्याग रूप परिणाम नहीं होता है वह विद्वज्जनों के द्वारा प्रत्याख्यान क्रिया कही गयी है ||२७| तीव्रभाव, मध्यमभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, प्रज्ञातभाव, अधिकरण तथा वीर्य से उस प्रस्रव में विशेषता जानी जाती है ||२८|| आस्रव का जो अधिकरण है उसके सत्पुरुषों ने जीवाधिकरण और अजीवाधिकररण इसप्रकार दो भेद कहे हैं । उनमें विद्वज्जन जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद हैं ऐसा कहते हैं ||२६|| हिंसादि के विषय में अभिप्राय का होना संरम्भ है तथा साधनों का अच्छी तरह अभ्यास करना समारम्भ है, ऐसा विद्वज्जनों के द्वारा कहा जाता है । कार्य का प्रारंभ कर देना आरम्भ है, इस प्रकार ये तीन माने गये हैं । काय वचन और मन का जो संचार है वह तीन प्रकार का योग है ।।३० – ३१ ।। स्वतन्त्रता की प्रतिपत्ति जिसका प्रयोजन है वह ज्ञानीजनों के द्वारा कृत कहा १ शास्त्रोक्तक्रिया करणेऽनादरः २ मायारोगरहितै ! – माया एव आमय: तेन विवजित ३ सञ्चलनम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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