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षोडशः सर्गः
२३१ कायाय : स्वस्य चान्येषां गमनादिप्रवर्तनम् । सा प्रयोगक्रियेत्युच्चः प्रयोग रुदाहृता ।।८।। संयमाधारभूतस्य साधोरविरति प्रति । प्राभिमुख्यं समादानक्रियेति परिकीर्त्यते ॥६॥ ईर्यापयक्रिया नाम स्यादोर्यापथहेतुका । क्रोषावेशादयोद्भूता क्रिया प्रादोषिकी क्रिया ।।१०।। अभ्युद्यमः प्रदुष्टस्य स्यात्सतः कायिकी क्रिया। हिंसोपकरणादानादथाधारक्रियोच्यते ।।११।। प्रसुखोत्पत्तितन्त्रत्वात्सा क्रिया पारितापिकी । हिंसात्मिका च विज्ञेया क्रिया प्राणातिपातिकी ॥१२॥ रागार्दीभूतमावस्य संयतस्य प्रमादिनः । रम्यरूपनिरीक्षाभिप्रायः । स्याद्दर्शनक्रिया ॥१३॥ उत्पादनावपूर्वस्य स्वतोऽधिकरणस्य तु । प्रात्ययिकी क्रिया नाम प्रत्येतव्या' मनीषिणा ।।१४॥ प्रमादवशतः किश्चित्सतो द्रष्टव्यवस्तुनि। संचेतनानुबन्ध: स्यात्प्रसिद्धाभोगिनी क्रिया ।।१५।। स्त्रीपुंसादिकसंपातिप्रदेशेऽन्तमलोद्धृतिः । क्रिया भवति सा नाम्ना समन्तादुपतापिनी ॥१६॥ धरण्यामप्रमृष्टायामदृष्टायां च केवलम्। शरीरादिकनिक्षेपस्त्वनाभोगक्रिया स्मृता ॥१७॥ क्रियां परेण निर्वया स्वयं कुर्यात्प्रमादतः । सा स्वहस्तक्रिया नाम प्रयतात्मभिरुच्यते ॥१८॥ विशेषेणाम्यनुज्ञानं पापादानप्रवृत्तिषु । सा निसर्गक्रियेत्युक्ता विमुक्तिरतमानसः॥१६॥ पराचरितसावधप्रक्रमादिप्रकाशनम् । विदारणक्रिया ज्ञेया सा समन्ताददारुणः ॥२०॥
पुरुषों की जो गमन आदि में प्रवृत्ति होती है उसे उत्कृष्ट प्रयोग के ज्ञाता पुरुषों ने प्रयोग क्रिया कहा है ।।८।। संयम के आधारभुत साधु असंयम की ओर सन्मुख होना समादान क्रिया कही जाती है ||६॥ ईर्यापथ के कारण जो क्रिया होती है वह ईर्यापथ नामकी क्रिया है। तथा क्रोध के आवेश से जो क्रिया उत्पन्न होती है वह प्रादोषिकी क्रिया कहलाती है ।।१०।। अत्यन्त दुष्ट मनुष्य का हिंसादि के प्रति जो उद्यम है वह कायिकी क्रिया है तथा हिंसा के उपकरण आदि को ग्रहण करना आधार क्रिया कहलाती है ।।११।। दुःखोत्पत्ति के कारण जो परिताप होता है वह पारितापिकी क्रिया है तथा हिंसात्मक जो क्रिया है उसे प्राणातिपातिको क्रिया जानना चाहिए ।।१२।। राग से प्रार्द्र अभिप्राय वाले प्रमादी साधु का सुन्दर रूप को देखने का जो अभिप्राय है वह दर्शन क्रिया है ।।१३।। स्वयं अपूर्व अधिकरण के उत्पन्न करने से-विषयोपभोग के नये नये साधन जुटाने से प्रात्यायका क्रिया ऐसा विद्वज्जनों को जानना चाहिये ।।१४।। प्रमाद के वशीभूत होकर किसी देखने योग्य वस्तु का बार बार चिन्तन करना भोगिनी क्रिया प्रसिद्ध है ।।१५।। स्त्री पुरुषों के आवागमन के स्थान में भीतरी मलों का छोड़ना समन्तादुपतापिनी (समन्तानुपातिनी) क्रिया है ।।१६।। बिना मार्जन की हुयी तथा बिना देखी हुई भूमि में मात्र शरीरादिक का रखना-उठना बैठना अनाभोग क्रिया मानी गयी है ।।१७।। दूसरे के द्वारा करने योग्य कार्य को जो प्रमाद वश स्वयं करता है उसका ऐसा करना प्रयत्नशील पुरुषों के द्वारा स्वहस्त क्रिया कही जाती है ।।१८।। पाप को ग्रहण करने वाली प्रवृत्तियों में विशेषरूप से संमति देना निसर्ग क्रिया है ऐसा मुक्ति में लीनहृदय वाले पुरुषों ने कहा है ।।१६।। दूसरे के द्वारा आचरित सावद्य कार्यों का प्रकट करना विदारण क्रिया है ऐसा दयालु पुरुषों को
१ ज्ञातव्या २करणीयां ३ सदयपुरुषः ।
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