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। षोडशः सर्गः
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प्रय 'वागीश्वरो वक्तुमालवं विगतानवः । पुण्याञवाय भव्यानां क्रमेणेत्थं प्रचक्रमे ॥१॥ यः कायवाङ्मनःकर्म योगः स स्यादयावा । शुभः पुण्यस्य निर्दिष्टः पापस्याप्यशुभस्तथा ॥२॥ सकषायोऽकषायश्च स्यातां तत्स्वामिनाबभौ । स साम्परायिकाय स्यात्तयोरीर्यापथाय च ॥३॥ इन्द्रियाणि कषायाश्च प्रथमस्याव्रतक्रियाः। उक्ताः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसम्मिताः ।।४।। देहिनां स्पर्शनादीनि हृषीकारिणः कषायकान्। क्रोधादोनवतान्याहुहिंसादीनि मनीषिणः ॥५।। गुरुचत्यागमादीनां पूजास्तुत्यादिलक्षणा । सा सम्यक्त्वक्रिया नाम ज्ञेया सम्यक्त्ववधिनी ॥६॥ प्रन्यदृष्टिप्रशंसाविरूपा मिथ्यात्वहेतुका । प्रवृत्तिः परमार्थेन सा मिथ्यात्वक्रियोच्यते ॥७॥
षोडश सर्ग
अथानन्तर आस्रव से रहित तथा वचनों के स्वामी श्री शान्तिजिनेन्द्र भव्यजीवों के पुण्यास्रव के लिये इस प्रकार प्रास्रव तत्त्व का क्रम से कथन करने के लिये उद्यत हुये ॥१॥ जो काय वचन और मन की क्रिया है वह योग कहलाता है । वह योग ही प्रास्रव है। शुभयोग पुण्य कर्म का और अशुभ योग पाप कर्म का आस्रव कहा गया है ॥२॥ आस्रव के स्वामी जीव सकषाय और अकषाय के भेद से दो प्रकार के हैं
ग सकषाय जीवों के सांपरायिक आस्रव और अकषाय जीवों के ईर्यापथ आस्रव के लिये होता है ॥३॥ पांच इन्द्रियां, चार कषाय, पांच अव्रत और पच्चीस क्रियाएं ये सांपरायिक आस्रव के भेद हैं ॥४॥ विद्वज्जन प्राणियों की स्पर्शन आदि को पांच इन्द्रिय, क्रोधादिक को चार कषाय और हिंसादिक को पांच अव्रत कहते हैं ॥५॥
गुरु प्रतिमा तथा आगम आदि की पूजा स्तुति आदि लक्षण से सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली जो क्रिया है वह सम्यक्त्व क्रिया है ।।६।। मिथ्यात्व के कारण अन्य दृष्टियों की प्रशंसादि रूप जो जीव की प्रवृत्ति है वह परमार्थ से मिथ्यात्व क्रिया कही जाती है ।।७।। शरीर आदि के द्वारा अपनी तथा अन्य
१ शान्तिजिनेन्द्रः २ इन्द्रियाणि ।
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