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पंचदशः सर्गः
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शार्दूलविक्रीडितम् द्रव्याणां सह लक्षणेन सकलं षण्णां स्वरूपं क्रमात
पत्यावेवमुदीरयत्यतितरां तस्मिन्प्रतीतावहत । सा संसन्मनसा प्रबोधपटुना व्याभासमानानना
प्रत्यनार्ककरकपातविकसत्पद्याकरस्य श्रियम् ॥१४०॥ द्रव्याण्येवमुदीर्य भव्यजनताकार्ये प्रबन्धोद्यमाः [प्रबद्धोद्यमं]
वक्तुप्रक्रममाणमीशमपरं सत्संपदा तं पदम् । सभ्याः केचन तुष्टुवुः प्रतिपदं केचित्प्रणेमुर्मुदा
नामोन्नामसमेतमौलिमकरीविन्यस्तहस्ताम्बुजाः ॥१४॥ इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे भगवतः केवलोत्पत्तिर्नाम
* पञ्चदशः सर्ग: *
हृदय से उसका मुख कमल खिल गया और वह प्रातःकाल के सूर्य की किरणों के पड़ने से खिलते हुए कमल वन की शोभा को धारण करने लगी ।।१४०।। इस प्रकार द्रव्यों का निरूपण कर जो भव्यजनों के कार्य-हित साधना में तत्पर थे, शेष तत्वों का निरूपण करने के लिए उद्यत थे, तथा समीचीन संपदाओं-अष्ट प्रातिहार्य रूप श्रेष्ठ संपदाओं के अद्वितीय स्थान थे ऐसे उन शान्ति प्रभु की कोई सदस्य स्तुति कर रहे थे, और कोई हर्ष से झुकते तथा ऊंचे उठते हुए मुकुटों के अग्रभाग पर हस्त कमल को रखकर पद पद पर प्रणाम कर रहे थे ।।१४१।।
__इस प्रकार असग महाकवि द्वारा विरचित शान्तिपुराण में भगवान् के केवलज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हुआ ।।१५।।
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