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________________ २२८ श्रीशांतिनाथपुराणम् असंख्येया! प्रदेशाः स्युधर्माधर्मकदेहिनाम् । अनन्ता वियतः संख्येयासंख्येयाश्च रूपिरणाम् ॥१३०॥ प्रप्रदेशो ह्यगुह्यो गुरणवर्णादिमिः स्वः । लोकाकाशेऽवगाहः स्यादमीषामिति निश्चितम् ॥१३१।। स्वप्रतिष्ठमथाकाशमनन्तं सर्वतः स्थितम् । धर्मादयो विलोक्यन्ते यस्मिन्लोकः स उच्यते ॥१३२॥ म्याधर्माधर्मयोळक्तं तस्मिन् कृत्स्नेऽवगाहनम् । एकादिषु प्रदेशेषु पुद्गलानां च भाजयेत् ॥१३३॥ जीवानामप्यसंख्येयभागाविषु विकल्पयेत् । तत्र प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत ॥१३४॥ प्रथ गन्धरसस्पर्शवलवन्तश्च । पुद्गलाः । शब्दबन्धनसंस्थानसूक्ष्मस्थौल्यमिवाः स्थिताः ॥१३५।। तमश्छायातपोद्योतवन्तरचोक्तास्तथाणवः । स्कन्धाश्च मेदसंधातहेतवोऽणुस्तु भेदतः ॥१३६।। स्निग्धरूक्षतया बन्धः पुद्गलानामुदाहृतः । न जघन्यगुणैः साधं द्वचधिकादिगुणर्भवेत् ॥१३७।। बन्धेऽधिकगुणौ नित्यं भवेतां पारिणामिको। वर्तनालक्षणः कालः सोऽनन्तसमयः स्मृतः॥१३८।। यदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं तत्सवितीरितम् । तद्भावादव्ययं नित्यमपितानपिताश्रयात् ॥१३६॥ प्रदेश हैं, आकाश के अनन्त प्रदेश हैं, पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं परन्तु परमाणु प्रदेश रहित है। वह परमाणु अपने वर्णादिगुरगों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है अर्थात् रूप रस गन्ध और स्पर्श से सहित है। इन सब द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है यह निश्चित है ।।१३०-१३१।। आकाश स्वप्रतिष्ठ है तथा सब ओर से अनन्त है। जिसमें धर्मादिक द्रव्य देखे जाते हैं--पाये जाते हैं वह लोक कहलाता है ।।१३२।। धर्म और अधर्म द्रव्य का स्पष्ट अवगाहन समस्त लोक में है। पुद्गलों का अवगाहन एक आदि प्रदेशों में विभाग करने के योग्य है। जीवों का अवगाहन भी लोक के असंख्यातवें भाग को आदि लेकर समस्त लोक में जानना चाहिए । दीपक के समान प्रदेशों के संकोच और विस्तार के कारण जीवों का अवगाहन लोक के असंख्येयभागादिक में होता है ॥१३३-१३४।। अब पुद्गल का लक्षण कहते हैं जो स्पर्श रस गन्ध और वर्ण से सहित हों वे पुद्गल हैं। शब्द, बन्ध, संस्थान, सौम्य, स्थौल्य, तम, छाया, पातप और उद्योत से सहित पुद्गल होते हैं अर्थात् ये सब पुदगल द्रव्य के पर्याय हैं । अणु और स्कन्ध ये पुदगल द्रव्य के भेद हैं । स्कन्ध की उत्पत्ति भेद, संघात तथा भेद संघात से होती है परन्तु अणु की उत्पत्ति मात्र भेद से होती है ॥१३५-१३६।। पुद्गलों का बन्ध स्निग्ध और रूक्षता के कारण कहा गया है । जघन्य गुण वाले परमाणुओं के साथ बन्ध नहीं होता है किन्तु दो अधिक गुण वालों के साथ होता है ।।१३७॥ बन्ध होने पर अधिक गुण वाले परमाणु हीन गुण वाले परमाणुओं को अपने रूप परिणमा लेते हैं। काल द्रव्य वर्तना लक्षण वाला है तथा अनन्त समय से युक्त माना गया है ।।१३८।। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त हो वह सत् कहा गया है । द्रव्य का अपने रूप से नष्ट नहीं होना नित्य कहलाता है। विवक्षित और अविवक्षित के आश्रय से द्रव्य नित्या नित्यात्मक होता है ।।१३६।। इस प्रकार जब शान्ति जिनेन्द्र ने द्रव्यों के लक्षण के साथ साथ छहों द्रव्यों के स्वरूप का क्रम से कथन किया तब वह समवसरण सभा अत्यन्त श्रद्धा से युक्त हो गयी। प्रबोध प्राप्त करने में दक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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