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पंचदशः सर्गः
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द्विभेदो नवमेवश्च
तथाष्टादशभेदकः । एकविंशतिभेदश्च त्रिभेदश्च यथाक्रमम् ।। १२० ।। भेदौ सम्यक्त्वचारित्रे पूर्वस्य क्षायिकस्य च । ज्ञानहग्दानला मोपभोग भोगातिशक्तयः ।। १२१ ॥ चत्वारि त्रीणि च ज्ञानाज्ञानान्यपि यथाक्रमम् । दर्शनानि तथा त्रीणि प्रसिद्धाः पश्चलब्धयः ।। १२२ ।। उक्ते संयमचारित्रे संयतासंयतस्थितिः । क्षायोपशमिकस्यैवं भेदोऽष्टादशधा भवेत् ।। १२३ ।। चतस्रो गतयोsसिद्धस्त्रीणि लिङ्गान्यसंयतः । मिथ्यादर्शनमज्ञानं चत्वारश्च कषायकाः । । १२४ ।। 'झमा षड्भिश्च लेश्यामिरिति स्यादेकविंशतिः । भाक्स्यौदविकस्यापि भेवाः कर्मोबथाश्रयः ॥ १२५ ॥ जीवभन्या भव्यत्वैस्त्रिविधः पारिणामिकः । मामः षष्ठोऽपि षत्रिशद्भेदोऽन्यः सांनिपातिकः ॥ १२६ ॥ utter: पुद्गलाकाशधर्माधर्माः प्रकीर्तिताः । कालश्चेत्यस्तिकायाश्च पश्च कालेन बर्जिताः ।। १२७॥ जीवादयोऽथ कालान्ताः षड् द्रव्याणि भवन्ति ते । गुरगपर्ययवद्द्रव्यमिति जैनाः प्रचक्षते ॥ १२८ ॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि रूपिणः पुद्गला मताः । एकद्रव्याण्यथाव्योम्नः कथ्यन्ते निःक्रियाणि च ।। १२६ ।।
अब जीव के प्रपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रदयिक और पारिणामिक भाव जानने के योग्य हैं ।। ११६ ॥ श्रपशमिक भाव दो भेद वाला, क्षायिकभाव नौभेद वाला, क्षायोपशमिक भाव अठारह भेद वाला, प्रौदयिकभाव इक्कीस भेद वाला और पारिणामिकभाव तीन भेद वाला क्रम से जानना चाहिए ।। १२० ।। सम्यक्त्व और चारित्र ये दो प्रपशमिकभाव के भेद हैं । क्षायिकज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, और चारित्र, ये क्षायिकभाव के नौ भेद हैं ।। १२१|| चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय, तीन प्रज्ञान - कुमति कुत कुअवधि, तीन दर्शन-चक्षु दर्शन,
चक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, पञ्चलब्धियां - दान लाभ भोग उपभोग, वीर्य, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र, और संयमासंयम इस प्रकार क्षायोपशमिकभाव के अठारह भेद हैं ।। १२२ - १२३ ।। चार गतियां - नरक तिर्यञ्च मनुष्य देव, असिद्धत्व, तीन लिङ्ग - स्त्री पुरुष नपुंसक वेद, असंयत, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, चार कषाय - क्रोध मान माया लोभ, और छह लेश्याएं -- कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्ल इस प्रकार प्रदयिकभाव के इक्कीस भेद हैं । यह भाव कर्मोदय के आश्रय से होता है ।। १२४ - १२५ ।। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व के भेद से पारिणामिक भाव तीन प्रकार का है । इनके सिवाय छत्तीस भेद वाला एक सांनिपातिक नामका छठवां भाव भी होता है।
।। १२६ ।।
अजीव के पांच भेद कहे गये हैं- पुद्गल, आकाश, धर्म, अधर्म, और काल । इनमें से काल को छोड़कर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच अस्तिकाय कहलाते हैं ।। १२७|| जीव को आदि लेकर काल पर्यन्त छह द्रव्य होते हैं । जो गुरण और पर्याय से युक्त हो वह द्रव्य है इस प्रकार जैनाचार्य द्रव्य का लक्षण कहते हैं ।। १२८ || ये सभी द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी हैं परन्तु पुद्गल द्रव्य रूपी माने गये हैं । धर्म अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं। जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष चार द्रव्य क्रिया -रहित हैं ।। १२६ ।। धर्म अधर्म और एक जीवद्रव्य के प्रसंख्यात
१ सह ।
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