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________________ षोडशः सर्गः २३३ स्वातन्त्र्यप्रतिपत्यर्थं कृतमित्युच्यते बुधैः । प्रायः प्रयोग कस्वान्तपरिणामः प्रदश्यते । 207 सदा परप्रयोगार्थं कारितग्रहणं तथा ॥ ३२॥ | श्रथानुमतशब्देन किमेतदितीयते ॥ ३३॥ • क्रोधो मात्र माया व लोभश्चेति वायकान् । संरम्भादित्रिवर्गेण प्रत्येकं गुणयेत्क्रमात् ॥ ३४॥ निवर्तनाथ विशेष: संयोगश्च मनीषिभिः । जीवेतराधिकरणं निसर्गश्वेति कथ्यते द्विचतु द्वित्रिमेवा पत्रात्रमनुदीरिताः । एवमेकादशंकत्र तद्विद्भिः परिविथिताः ॥३६॥ मूलोत्तरगुरायां तु द्विधा निर्मार्ता मता । मूलं सचेतनं विखारकाष्ठादिक्रमयोसरम् || ३७। प्रत्यवेक्षितो लिस्यं दुःप्रमृष्टश्व केवलम् । सहसा चानाभोगश्च ३ भक्तोपकररणाभ्यां स्यात्सयोगो द्विविधो मतः । योगदानस्य त्रैविध्यं परिकल्प्यते ||३६|| प्रदोषो निह्न तिर्मात्सर्वान्तरायौ च पूर्वयोः । प्रासादनोपधातौ च कर्मणोः 'त्र तिहेत: ॥३४ कोर्तने मोक्षमास्य कस्यचिन्नाभिजल्पतः । ग्रश्वान्तः पिशुनोभावः स प्रदोषः प्रकीर्तित।४१।। कुतश्चित्कारणान्नास्ति न वेद्यीत्यादि सस्यचित् । ज्ञानस्य निकृतिर्योग्ये या सा निह्न तिरोयते ॥ ४२॥ जाता है। दूसरे से कराना जिसका प्रयोजन है वह कारित कहलाता है । और प्रेरक मनका जो परिणाम है वह अनुमत शब्द से दिखाया जाता है। इस प्रकार यह कृत-कारित और अनुमोदना का त्रिक "है ।। ३२-३३ ।। क्रोध मान माया और लोभ ये चार कषाय हैं इन्हें संरम्भादिक त्रिवर्ग के द्वारा कम से गुणित करना चाहिये । अर्थात् संरम्भादिक तीनका तीनयोगों में गुणा करने से नौ भेद होते हैं । नौ का कृत कारित और अनुमोदना में गुणा करने से सत्ताईस होते हैं और सत्ताईस का क्रोधादि चार कषायों में गुणा करने से जीवाधिकरण के एक सौ प्राठ भेद होते हैं ||३४|| निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग यह विद्वज्जनों के द्वारा अजीवाधिकररण प्रस्रव कहा गया है ।। ३५ ।। इनमें यथाक्रम से निर्वर्तना के दो, निक्षेप के चार, संयोग के दो और निसर्ग के तीन भेद कहे हैं । इस प्रकार अजीवाधिकरण आस्रव के ज्ञाता पुरुषों ने अजीवाधिकरण के एकत्रित ग्यारह भेद कहे हैं ||५६ || मूलगुण और उत्तर गुणों के भेद से निर्वर्तना दो प्रकार की मानी गयी है । सचेतन को मूल गुरण और काष्ठादिक को उत्तर गुरण जानना चाहिए ||३७|| अप्रत्यवेक्षित निक्षेप, दुष्प्रमृष्ट निक्षेप, सहसा निक्षेप और प्रनाभोग निक्षेप, इस प्रकार निक्षेप चार प्रकार का होता है ।। ३८ ।। भक्तपान - संयोग और उपकरण संयोग के भेद से संयोग प्रकार का माना गया है तथा योगों के भेद से निसर्ग तीन प्रकार का कहा जाता है ||३६| प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, प्रसादन और उपघात ये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के श्रास्रव के हेतु हैं ||४०|| मोक्ष मार्ग का व्याख्यान होने पर कोई मनुष्य कहता तो कुछ नहीं है परन्तु अन्तरङ्ग में उसके दुष्ट भाव होता है । उसका वह दुष्ट भाव प्रदोष कहा गया है ||४१ || किसी कारण से नहीं है, नहीं जानता हूं इत्यादि शब्दों द्वारा किसी का देने योग्य विषय में ज्ञान का जो छिपाना है वह निहुति कहलाती है ||४२ || योग्य पुरुष के लिए भी जो अभ्यास किया हुआ भी ३० १ आस्रवहेतव: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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