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________________ पञ्चदशः सर्गः २२३ विपुलो वेत्ति सप्ताष्टाजघन्येनापि कालतः । उत्कर्षेणाप्यसंख्येयान्गत्यागस्यादिमिर्भवान् ।।।। स योजनपृथक्त्वं च होनेन क्षेत्रतः सदा। मामानुषोत्तराचारादुत्कर्षेगापि पश्यति ॥१॥ विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषोऽवगम्यते । शुद्धिक्षेत्रेशवस्तुभ्यः स्याविशेषोऽन्य चावः ॥२॥ द्रव्येष्वसर्वपर्यायेण्याहुः सर्वेषु सर्वतः । मतेः श्रुतस्य च प्राज्ञा विषयेषु निबन्धनम् ।।६३॥ प्रवषे रुपिषु प्रोक्तो निबन्धो निनिबन्धनः' । प्रथास्यानन्तभागे च स्यान्मन:पर्ययस्य च ॥४॥ त्रैकाल्यसकलाव्यपर्वायतु नियनम् । लस्या भवेतन्य आशिक : सर्वतोमुच्या ज्ञाननितयमाचं स्वाद्विपर्ययसमन्वितम् । छयाविशेषण मापलालम्वितः ॥६॥ नेगमः संग्रहो नाम्ना व्यवहार सूत्रको। शम्मः समभिरूढवंभूताविति नया इने ॥६ हेत्वपरणादनेकात्मन्यविरोधेन वस्तुनि । प्रयोगः साध्ययाथात्म्यप्रापरणप्रवणो नयः ॥८॥ अपेक्षा जघन्य रूप से सात आठ भवों को और उत्कृष्ट रूप से असंख्यात भवों को गति आगति आदि के द्वारा जानता है ।।१०।। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्यरूप से सात आठ योजन और उत्कृष्ट रूप से मानुषोत्तर पर्वत तक की बात को देखता है ॥६॥ विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति में विशेषता जानी जाती है तथा विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयभूत वस्तु की अपेक्षा अवधि और मनःपर्ययज्ञान में विशेषता होती है ।।१२।। विद्वज्जन मति और श्रुतज्ञान का विषय निबन्ध समस्त पर्यायों से रहित समस्त द्रव्यों में कहते हैं । अर्थात् मति श्रुतज्ञान जानते तो सब द्रव्यों को हैं परन्तु उनकी सब पर्यायों को नहीं जानते ।।६३॥ __ अवधिज्ञान का विषय निबन्ध रूपी द्रव्यों में कहा गया है। अवधिज्ञान का विषय प्रतिबन्ध से रहित होता है अर्थात् वह अपने विषय क्षेत्र में प्रागत पदार्थों को भित्ति आदि का आवरण रहते हुए भी जानता है । मनःपर्ययज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग सूक्ष्म विषय में होता है ।।१४।। केवल ज्ञान का विषय निबन्ध तीन काल सम्बन्धी समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में होता है । वह केवल ज्ञान क्षायिक तथा सर्वतोमुख-सभी ओर के विषयों को ग्रहण करने वाला है ।।६५।। आदि के तीन ज्ञान विपर्यय से सहित होते हैं अर्थात् मिथ्यारूप भी होते हैं क्योंकि उनसे पदार्थों की उपलब्धि स्वेच्छानुसार सामान्य रूप से होती है ।।६६॥ ____ नैगम संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं ।।७।। अनेकान्तात्मक-परस्पर विरोधी अनेक धर्मों से सहित वस्तु में विरोध के बिना हेतु की विवक्षा से साध्य की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग नय कहलाता है ।।१८। वह नय दो प्रकार का होता है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । पहले कहे हुए नैगम आदि भेद इन्हीं दो नयों के भेद हैं। १ विविधप्रतिवन्धरहितः १ हेतुविवक्षया ३ अनेकधर्मात्मके ४ 'सामान्य लक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्य विरोधेन हेत्वर्पणात साध्यविशेषस्य याथात्प्यप्रापणप्रवण। प्रयोगो नमः' सर्वानिसिद्धि प्रथमाध्याय सूत्र ३३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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