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________________ २२४ श्रीशांतिनाथपुराणम् द्विधा द्रव्यामिकः स स्थात्पर्यायामिक इत्यपि । तयोरेव प्रकाराश्च पूर्वोक्ता नैगमादयः ॥ ६॥ श्रनिवृतार्थसंकल्पमात्रग्राही स नैगमः । काष्ठाद्यानयनोत्थस्य पंचाम्यनं यथा वचः ॥१००॥ प्राक्रान्तमेवम्पर्यायानैकध्यमुपनीय च । स्वजातेरविरोधेन समस्त ग्रहणादिभिः ॥ १०१ ॥ उच्यते संग्रहो नाम नयो नयविशारदः । सव्यम् घट इत्यादि यथा लोके व्यवस्थितम् ॥१०२॥ ( युग्मम् ) संग्रहासिक क्रमशो विधिपूर्वम् । अवहरणं तद्धि व्यवहार इतीरितः || १०३ ॥ सवित्युदितसामान्यन्युतरोत्तरान् । व्यवहारः परिनिविभागं प्रतिष्ठते ॥ १०४ ॥ प्रतीतानागतौ त्यक्वा वर्तमानं प्रपद्यते । ऋजुसूमो विनष्टत्वादजातस्वात्तथा तयो ? ॥१०५॥ भावार्थ - नैगम, संग्रह और व्यवहार द्रव्यार्थिक नय के भेद हैं और शेष चार पर्यायार्थिक नय के भेद हैं ||| अनिष्पन्न पदार्थ के संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम नय है जैसे कि लकड़ी आदि लाने के लिए खड़े हुए मनुष्य का 'मैं अन्न पकाता हूं' ऐसा कहना। यहां अन्न का पाक यद्यपि अनिष्पन्न है तो भी उसका संकल्प होने से 'पकाता हूं' ऐसा कहना सत्य है || १०० || विविध भेदों से सहित पर्यायों को एकत्व प्राप्त कर जो अपनी जाति का विरोध न करता हुआ समस्त पदार्थों का ग्रहण आदि करता है वह नय के ज्ञाता पुरुषों के द्वारा संग्रह नय कहा जाता है जैसे सद्, द्रव्य, घट आदि लोक में व्यवस्थित हैं भावार्थ - जो नय पदार्थों में भेद उत्पन्न करने वाली विशेषता को गौण कर सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह संग्रह नय कहलाता है। जैसे सत् । यहां सत् के भेद जो द्रव्य, गुण और पर्याय हैं उन्हें गौण कर मात्र सत् रूप सामान्य अंश को ग्रहण किया गया । इसी प्रकार द्रव्य के भेद जो जीव पुद्गल धर्म आदि हैं उन्हें गौण कर मात्र उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षण से युक्त सामान्य अंश को ग्रहण किया गया। इसी प्रकार घट के भेद जो मिट्टी, तांबा, पीतल आदि से निर्मित घट हैं उन्हें गौण कर मात्र कम्बुग्रीवादिमान् सामान्य अंश को ग्रहरण किया गया ।।१०१ - १०२ ॥ संग्रह नय के द्वारा गृहीत वस्तुओं में क्रम से विधिपूर्वक जो भेद किया जाता है वह व्यवहार नय कहा गया है । जैसे 'सत्' इस प्रकार कहे हुए सामान्य अंश से उत्तरोत्तर विशेषों को ग्रहण करने वाला नय व्यवहार नथ है । यह नय वस्तु में तब तक भेद करता जाता है जब तक कि वह वस्तु विभाग रहित न हो जावे । भावार्थ - संग्रह नय ने 'सत्' इस सामान्य अंश को ग्रहण किया था तो व्यवहार नय उसके द्रव्य, गुरण पर्याय इन भेदों को ग्रहण करेगा । संग्रह नय ने यदि ' द्रव्य' इस सामान्य अंश को ग्रहण किया तो व्यवहार नय उसके जीव पुद्गल आदि विशेष भेदों को ग्रहरण करेगा । तात्पर्य यह है कि संग्रह नय विविध भेदों में बिखरे हुए पदार्थों में एकत्व स्थापित करता है और व्यवहार नय एकत्व को प्राप्त हुए पदार्थों में विविध भेदों द्वारा नाना रूपता स्थापित करता है । ।। १०३ - १०४ । ta, ट हो जाने से अतीत को और अनुत्पन्न होने के कारण अनागत पर्याय को छोड़कर मात्र वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है वह ऋजु सूत्र नय है ।। १०५ ॥ । जो नय अन्य पदार्थों का अन्य १ विभागपर्यन्तं २ अतीतानागतयोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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